आँखों पे आइना क्यों
चमकाती हो
कहो तो यह आइना
ख़ाब पे रख लूँ
मगर शर्त यह है
सदा रू-ब-रू रहो
कई बार जब शाम
को आँख लगी
तो देखा वह आइना
ख़ाब ही पे रखा है
और रू-ब-रू
तुम बैठी हुई हो
दरवाज़े पर जब
कोई दस्तक हुई
तो ख़ाब ही में
उठकर चल दिया
कि शायद तुम हो
दरवाज़े पर…
अकसर मेरे साथ
यूँ ही होता है
कि एहसास
छू के जाता है तेरा
उस आइने में
कोई और नहीं तुम हो
जो दीवार पर
टँगा हुआ है
आइना चमकाना
छोड़ दो
वह आइना दिल है
कहीं गिर गया तो
टूट जायेगा
बिखर जायेगा
शौक़ बदलकर
ख़ाब में मिलते हैं
यह शौक़ अब
पुराना हुआ
तेरा चेहरा आज भी
नया लगता है
रुख़ बदल गये
मौसम के
यह फ़ज़ाएँ ख़ुशरंग
दिख रही हैं
यूँ लग रहा है
कि दोनों इक ही
नशेमन ढूँढ़ते हैं
कि आज फिर आँखों पे
आइना चमका रही हो
शायिर: विनय प्रजापति ‘नज़र’
लेखन वर्ष: २००२
One reply on “आँखों पे आइना क्यों”
bahut khub,aaine ke saath unki tasveer bhi dil meinrakh le,rubaru sada rehengi phir wo.