अफ़सोस की इक आँधी आयी है
अफ़सोस का इक जलजला उठा है
तक़दीर के बन्द मर्तबानों में
वक़्त की आग तले
जाने क्या सारी-सारी रात पका है
कभी अपनी कथनी पे अफ़सोस
कभी अपनी करनी पे अफ़सोस
अजब सौदाई है यह दुनिया
कभी-कभी ख़ुद ही यह दिल
चाँद की आग तले जला करता है
अफ़सोस की इक आँधी आयी है
अफ़सोस का इक जलजला उठा है
बड़ी उम्मीदी से तआक़ुब पे
निकला था मैं और वह नेज़े की
नोंक पे टाँग के मुझे ही चला है
मैं गुल्ज़ारों की खोज में चला हूँ
मुझे तपता हुआ सहराँ मिला है
बदल जाता है एक दिन सब
मारू की उड़ती ते़ज़ आँधी से
बहती हवाओं का रुख़ पता चला है
अफ़सोस की इक आँधी आयी है
अफ़सोस का इक जलजला उठा है
ख़ुशबू में लिपटी हुई हवाओं से
किसी गुल को वस्ल मिला है
माह जैसे चेहरे से नक़ाब हटा है
ख़ामोशी के पैबन्द लगाये हुए हैं
मैंने उन सभी अनकहे लफ़्ज़ों पे
उस पल से इस पल तक
सभी सफ़्हे सभी हर्फ़ जले हैं
कौन-सा लबों की टेक ले जला है
शायिर: विनय प्रजापति ‘नज़र’
लेखन वर्ष: २००२