Categories
मेरी ग़ज़ल

अपनी क़िस्मत पे नाज़ करते

अपनी क़िस्मत पे नाज़ करते, ग़ुरूर होता
जो कभी तेरे लबों से हमारा मज़कूर होता

अगरचे हमने छुपाया राज़े-दिल तुम से
डर था तेरी निगाह में यह ना क़ुसूर होता

तुमसे कुछ न कहा इसमें ख़ता हमारी थी
बताता दर्दे-हिज्र जो ना मजबूर होता

क़िस्सा-ए-इश्क़ मुख़्तसर था बहुत
इक और मोड़ होता तो ज़रा मशहूर होता

तुमने मुझे देखकर जाने क्या सोचा होगा
काश मैं शक्ल से ख़ूबसूरत थोड़ा और होता

क्या हम ना पाते अपनी मोहब्बत को
गर हमें अपनी वक़ालत का शऊर होता

हम-तुम मिल ही जाते सनम इक रोज़
जो इश्क़ में आशिक़ों का मिलना दस्तूर होता

हैं आलम में वही रंग नये-पुराने, यादों के
तुम भी होते परेशाँ तो मज़ा ज़रूर होता

तड़प-तड़प के मैंने यह ग़ज़ल लिखी है
काश मेरी क़िस्मत में वह जमाले-हूर होता

पल-पल बिगड़ रहा है हाल तेरे बीमार का
ऐ ‘नज़र’ काश कि आज को वह न दूर होता


शायिर: विनय प्रजापति ‘नज़र’
लेखन वर्ष: २००

By Vinay Prajapati

Vinay Prajapati 'Nazar' is a Hindi-Urdu poet who belongs to city of tahzeeb Lucknow. By profession he is a fashion technocrat and alumni of India's premier fashion institute 'NIFT'.

3 replies on “अपनी क़िस्मत पे नाज़ करते”

सुन्दर गजल है।बधाई।

तुमसे कुछ न कहा इसमें ख़ता हमारी थी
बताता दर्दे-हिज्र जो ना मजबूर होता

Hi,

हम-तुम मिल ही जाते सनम इक रोज़
जो इश्क़ में आशिक़ों का मिलना दस्तूर होता

beautiful !!!!

tere vaade pe jiye ham to yeh jaan jhoot jaana
ke khushi se mar na jaate agar aitbaar hota !

Hope everything is fine…

शुक्रिया, परमजीत जी। मेरे अनाम मित्र को भी शुक्रिया! हाँ सब ठीक-ठाक है।

Leave a Reply to विनय Cancel reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *