हर घड़ी हर लम्हा मर रहा हूँ
बेवज़ह खु़द पे एतबार कर रहा हूँ
कौन अपना है कौन पराया
ज़िन्दगी को तिलतिल मौत-सा चख रहा हूँ
सीने में दर्द ग़ुबार बनके उठता है
सोचता हूँ इस जगह क्या कर रहा हूँ
इक पल को सुकूँ नहीं आया है आज तक
जाने किसके लिए सवाब जमा कर रहा हूँ
खु़शियों को परहेज़ रखना मुझसे बेहतर आता है
जहन्नुम की आग में जल रहा हूँ
कोई बचाये मुझको इन मुआमलों से
मुझपे उठती हर इक नज़र से डर रहा हूँ
अजीब तन्हाइयों में तावीलियत है
ज़बरन इनको मुख़्तसर कर रहा हूँ
क्या मिला किसी को मुझसे नाउम्मीदी के सिवा
मतलबियों से उम्मीद कर रहा हूँ
साँस ने मुझको फाँस इस क़दर दी है
इन्तिज़ारे – रोज़े – मशहर कर रहा हूँ
तुमको मैंने चाहा है शीना मुझे मुआफ़ रखो
न कुछ दे सका तो जाँ नज़र कर रहा हूँ
शायिर: विनय प्रजापति ‘नज़र’