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मेरी ग़ज़ल

इम्तिहाँ मेरी मोहब्बत को मुदाम देने हैं

इम्तिहाँ मेरी मोहब्बत को मुदाम देने हैं
दीजिए अगर आपको इल्ज़ाम देने हैं

और कौन दूसरा सितम-परस्त होगा इतना
आपकी न पर भी मुझे पयाम देने हैं

आपकी नीम-नज़र देती है मुझको सौ ग़ालियाँ
बावजूद इसके मुझे सौ सलाम देने हैं

संग उठाते-उठाते न थक जायें हाथ कहीं
आपको अभी मुझे ज़ख़्म तमाम देने हैं

‘नज़र’ से पूछ सुम्बुल के दिये हुए ज़ख़्म
आज काफ़िर को तर्क़े-इस्लाम देने हैं


शायिर: विनय प्रजापति ‘नज़र’
लेखन वर्ष: २००५

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मेरी ग़ज़ल

हाल तेरा कहीं मैंने तुझसे बेहतर जाना

हाल तेरा कहीं मैंने तुझसे बेहतर जाना
पर अफ़सोस कि तूने मुझे पत्थर जाना

वो महज़ इक जलन थी मेरे इस दिल की
तूने जिसे अपने दिल का निश्तर जाना

तू महरवश नहीं औरों की तरह मगर
मैंने तुझे अपनी हर निगह अख़्तर जाना

मेरे हाल पर हँसी आती है मेरे मसीहा को
ख़ुदा का यह रंग मैंने किसी से बेहतर जाना

कौन करेगा मेरी पैरवी ख़ुद मुंसिफ़ से
हर किसी ने उसे रक़ीब का दफ़्तर जाना

ख़ुदी में मग़रूर कैसे हो ख़ुदशनास भला
गर न कभी उसने मेरी आँखों को तर जाना

ख़ुदा से रश्क़ रखूँ या ख़ुद से शिकवा करूँ
मैंने सीखा नहीं इस राह के उधर जाना

थीं बहुत-सी ख़ूबियाँ मुझमें न जाने क्यों मगर
हर किसी ने मुझे ख़ुद से कमतर जाना

मेरे चार चराग़ों से रहे तेरा घर रौशन
तुम हर रथे-तीरगी से उतर जाना

मुझे ग़म था चुल्लूभर पानी के जितना
हैफ़ मैंने ज़रा से ग़म को समन्दर जाना


शायिर: विनय प्रजापति ‘नज़र’
लेखन वर्ष: २००५

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मेरी ग़ज़ल

शब हुई चाँद आया

शब हुई चाँद आया तेरे ग़म ने अँगड़ाई ली
क़यामत है क़ज़ा है यह शब जुदाई की

छुपाया न कुछ हमने तुमसे सब कह दिया
तुम्हें मेरे प्यार में क्या कमी दिखायी दी

मान जाओ निबाहेंगे मोहब्बत को ताउम्र
तुम्हें चाहकर क्या मैंने कोई बुराई की

मेरे ख़ुदा अगर न मिला मेरा प्यार मुझको
झुठला दी जायेगी बात तेरी ख़ुदाई की

तन्हा जी रहा हूँ और तेरा तस्व्वुर है
दिल में चुभती है फ़िक्र तेरी तन्हाई की

हमको देखा न देखा हाले-दिल मेरा तुमने
ऐ क़ातिल ख़ुशी ने हमसे यूँ बेवफ़ाई की

तुमको देखा तब जाना मैंने क़िस्मत क्या है
तुमने प्यार में मेरी यूँ रहनुमाई की


शायिर: विनय प्रजापति ‘नज़र’
लेखन वर्ष: २००५

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मेरी ग़ज़ल

दर्द की तहरीरें

मैं जो तुम्हें देखता हूँ मुझको देखती हैं तेरी तस्वीरें
साँस लेता हूँ मगर कमनसीब हैं हाथों की लक़ीरें

न ही कोई रब्त न ही रिश्ता न मरासिम न बंधन
फिर मेरे मन में पड़ रही हैं किसकी तसलीम की ज़ंजीरें

पाँव मोड़ दर मोड़ चलके इस मोड़ तक आये थे
शायद इसीलिए नाकाम हैं खा़हिशों की सारी तदबीरें

जबींसाई से कब मिटा है माथे का लिखा हमनफ़सों
ये दिल शबो-रोज़ खु़द लिखता है दर्द की तहरीरें

नसीब है फ़ासला, हिज्र या फ़ुरक़त’ कुछ भी कह लो
वरना जुड़ जाती दो अजनबी आश्ना दिलों की तक़दीरें

‘नज़र’ शब कहीं न समा जाये दर्द की गहराई में
मैं जो उसे देखता हूँ मुझको देखती हैं उसकी तस्वीरें


शायिर: विनय प्रजापति ‘नज़र’
लेखन वर्ष: १२/११/२००४

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मेरी ग़ज़ल

दिल में तेरे लिए सच्ची अक़ीदत है

है जो किसी से तुम्हें तो गुल से निस्बत है
तुम मुझको मिले हो यह मेरी क़िस्मत है

तेरे तब्बसुम से ही है यह रंगे-बहार
लगता है अब जैसे सारी फ़िज़ा जन्नत है

तेरी आँखों की गुलाबी डोरियाँ जैसे नश्शा-ए-मै
तिश्ना-लब हूँ मुझे पीने की हसरत है

तेरी ज़ुल्फ़ों से गुज़रते देखी है मैंने सबा
हाए! यह सबा भी कितनी खु़श-क़िस्मत है

तेरे अबरू मानिन्दे-कमान उठते हैं
मुझको तेरे आगोश में मरने की चाहत है

तेरे लब हैं की पंखुड़ियाँ गुलाब की हैं
इक बोसा पाने को शबो-रोज़ की मिन्नत है

सुना है जन्नत की हूरों के बारे में बहुत
मगर उनमें कहाँ यह कशिशे-क़ामत है

देखा है तुमने कभी चाँद को सरे-शाम
एक वही है जो तेरी तरह खू़बसूरत है

हो तुम ही मानिन्दे-खु़दा मेरे लिए
इस दिल में तेरे लिए सच्ची अक़ीदत है

तुम क़रीब होते हो दर्द मिट जाते हैं
तुमसे ही मुझको होती नसीब फ़रहत है

तुम्हें देखा तो मैंने अपनी ज़िन्दगी देखी
तुमको चाहना ही खु़दा की इबादत है

मेरा दिल जितना चाहता है तुमको सनम
तुम्हें भी मुझसे उतनी ही मोहब्बत है


शायिर: विनय प्रजापति ‘नज़र’
लेखन वर्ष: २६/०७/२००४