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मेरी ग़ज़ल

तेरे चेहरे पर अपनी नज़र ढूँढ़ते हैं

हर गली हर कूचा दर-ब-दर ढूँढ़ते हैं
हम अपनी दुआ में असर ढूँढ़ते हैं

तुम देखकर हँसते हो मुझे और हम
तेरे चेहरे पर अपनी नज़र ढूँढ़ते हैं

कौन दूसरा होगा हम-सा सितम-परस्त
हम अपना-सा कोई जिगर ढूँढ़ते हैं

जो राह मंज़िल तक पँहुचती होगी
तेरी चाहत में ऐसी रहगुज़र ढूँढ़ते हैं

धूप छुप गयी है कोहरे से भरी वादियों में
और हम हैं कि तेरा नगर ढूँढ़ते हैं

तुमने कहा नहीं कि कब आओगे तुम
हम तुझे अपनी राह में मगर ढूँढ़ते हैं


शायिर: विनय प्रजापति ‘नज़र’
लेखन वर्ष: २६ जुलाई २००४

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मेरी ग़ज़ल

हमने अबस की आरज़ू छोड़ दी

हमने अबस की आरज़ू छोड़ दी
तुमको पाने की जुस्तजू छोड़ दी

चाक़ जिगर को गरेबाँ में छिपाके
हमने हसरते-रफ़ू छोड़ दी

बुलाता रहा माज़ी पलट-पलट के
मगर अब इश्क़ की खू़ छोड़ दी

मैं हूँ अधूरी खा़हिशों का मुब्तिला
ग़ालिबन हमने वो बाज़ू छोड़ दी

है आज मौसम बदला-बदला
वो गुफ़्तार वो गुफ़्तगू छोड़ दी

हर  जगह पाओगे तुम मुझको
मैंने मेरी नज़र चार-सू छोड़ दी


शायिर: विनय प्रजापति ‘नज़र’
लेखन वर्ष: ३१ जुलाई २००४

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मेरी ग़ज़ल

माज़ी को बहुत खंघालते हैं लोग

माज़ी को बहुत खंघालते हैं लोग
बेतरह मतलब निकालते हैं लोग

हुआ कब मुझ से उनका बुरा
किसलिए नाम मेरा उछालते हैं लोग

ग़लतफ़हमियों की आदत है उन्हें
ग़लतफ़हमियाँ पालते हैं लोग

अपनी पे जब बन आयी है तो देखा है
किस तरह मुझे टालते हैं लोग

मुझे जो देखते हैं गिरता हुआ कहीं
दिखावे के लिए सँभालते हैं लोग

किस तरह यारब समझाऊँ इन्हें
मेरे लहू को बारहा उबालते हैं लोग

कुरेदते हैं वक़्त-ब-वक़्त मुझे
ज़ख़्मों पे रोज़ नमक डालते हैं लोग

बनाते हैं रोज़ नयी कहानियाँ ये
मुझे नये क़िस्से में ढालते हैं लोग

बनकर आते हैं हमदर्द मेरे
और आँखों में मिर्च चालते हैं लोग


शायिर: विनय प्रजापति ‘नज़र’
लेखन वर्ष: २० सितम्बर २००४

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मेरी ग़ज़ल

हम तन्हा और यह सफ़र तन्हा

हम तन्हा और यह सफ़र तन्हा
तुझे ढूँढ़ने वाली यह नज़र तन्हा

यूँ तो तेरी तस्वीर है दिल में मगर
फिर भी यह दीवारो-दर तन्हा

घर में हम हैं और आईना भी है
बिन तेरे हम दोनों यह घर तन्हा

तुम्हें देखा आज फिर रू-ब-रू, सामने
तुम्हें न दिखा हूँ इस क़दर तन्हा

बिन तुम्हारे इस तरह तन्हा हूँ
जैसे बिन फूलों के कोई शज़र तन्हा

बिन तुम्हारे कहीं दिल लगता नहीं
तुम बिन मैं जाऊँ किधर तन्हा

तुम नहीं तो यूँ लगता है मुझको
मैं हूँ आज भी शहर-ब-शहर तन्हा

जलेंगे सारी-सारी रात आज फिर हम
रहेगी आज फिर रहगुज़र तन्हा

गर तेरी यादें न होती तो क्या कहूँ मैं
जाता ज़िन्दगी का हर पहर तन्हा

दरिया का पानी बाँध दिया है किसी ने
बिन पानी हुई यह नहर तन्हा

न चाँद हँसा न खु़र्शीद मुस्कुराया
तुम बिन यह शामो-फ़ज़िर तन्हा


शायिर: विनय प्रजापति ‘नज़र’
लेखन वर्ष: १७ अगस्त २००४

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मेरी ग़ज़ल

दिल की बस्तियाँ जलीं

दिल की बस्तियाँ जलीं पर उठा नहीं धुँआ
बुझाया आँखों से मैंने पर बुझा नहीं धुँआ

बहुत देर तक टीस दबाये बैठा रहा मैं
चंद अश्क जो आये फिर चुभा नहीं धुँआ

दर्द पर्त-दर-पर्त जमता ही रहा
बुझाया बहुत मैंने पर हुआ नहीं धुँआ

कुछ उम्मीदें अश्कों के साथ बह गयीं
अश्क जो आँखों में आये फिर रहा नहीं धुँआ

पलकें बंद करता था पर होती न थीं
बहुत बाँधा किनारों से पर बँधा नहीं धुँआ

हम क्या-क्या कहें ‘नज़र’ तुम ही कह दो
मैंने आँखों में छुपाया पर छुपा नहीं धुँआ


शायिर: विनय प्रजापति ‘नज़र’
लेखन वर्ष: १७ अगस्त २००४