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मेरी नज़्म

सहाबों का कोई दरिया खा़ली हो रहा है…

क़ायनात बूँद-बूँद रो रही है
सहाबों का कोई दरिया खा़ली हो रहा है
बदल रहा है सब कुछ
इस दिल में ख़ला की उम्र और बढ़ रही है

जब दो लोग दूर जाते हैं
वक़्त उनके दिलों की दूरियाँ बढ़ा देता है
मैंने मुदाम यही देखा है
वरक़-वरक़ मुझसे ज़िन्दगी यही कह रही है

आज और इक नया सफ़हा खुला
आज फिर उसपे रोशनाई उलट गयी
खो गयी एक पुरानी क़ुर्बत
क़दम-क़दम साथ तन्हाई चल रही है

कब तक साँसों में पिरो-पिरोकर
बदन का चिथड़ा-चिथड़ा सँभालूँ
रग-रग में दर्द को पनाह दूँ
कभी तो लगे ज़िन्दगी की शाम हो रही है

मैं उनके लिए जैसा अपना था
वैसा अपना मेरी ज़िन्दगी में कोई नहीं
मुझे ठोकरें ही सहारा देती हैं
खा़हिश कमज़ोर इमारतों-सी ढह रही है

क़ायनात बूँद-बूँद रो रही है
सहाबों का कोई दरिया खा़ली हो रहा है…


शायिर: विनय प्रजापति ‘नज़र’

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मेरी नज़्म

आईना

आईना अंधा होता है
वह देख नहीं सकता
आईना बहरा होता है
वह सुन नहीं सकता

पर आईना कभी बेसदा नहीं टूटता
वह गूँगा नहीं होता!

 


शायिर: विनय प्रजापति ‘नज़र’

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मेरी नज़्म

और कोहरा छँटने लगता है

आँखों में भरा-भरा है
छँटता ही नहीं
किसी बीते हुए पल का कोहरा
कल का कोहरा

धुँधली नज़र आती हुई इमारतों में
किसी खिड़की के उस तरफ़
जो कोई चराग़ जलता दिखायी देता है
तो लगता है कि
तुम मुझे खड़ी देख रही हो

और इसके बाद
शीशे की तरह टूटकर वक़्त
पल-पल बिखरने लगता है
सोज़ की लौ सीने में
यादों का ईंधन सोखने लगती है
और कोहरा छँटने लगता है

फिर गीली भरी हुई आँखों से साफ़ दिखायी देता है
गुज़रा हुआ पल
मानी तेरी तस्वीर वो चंद साँसों के टुकड़े
साफ़-साफ़ लफ्ज़ों में कहूँ तो अधूरा प्यार
तुम्हारा प्यार…
 


शायिर: विनय प्रजापति ‘नज़र’

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मेरी नज़्म

फिर आज किसलिए…

वक़्त की इक और गिरह खुल गयी
रूह में इक और शिगा़फ़ आ गया
बदन की हर साँस दर्द बन गयी
कि रोशनी को फिर अँधेरा खा गया

वक़्त छोटी-छोटी उम्मीदें
हर वो सपना जो आपकी आँखों ने देखा है
कैसे छीन लेता है
मुझसे बेहतर कोई नहीं जानता

जो रिश्ता मैंने बोया था
उसे अपने हाथों से तुमने खु़द सींचा था
फिर आज किसलिए
ज़ीस्त तेरी उसकी खु़शबू से जुदा है

आँसू आँखों की आँच में
किनारे तक आते-आते धुँआ हो रहे हैं
गीली पुरनम आँखों में
दिल का टुकड़ा-टुकड़ा जल रहा है

मैं बूँद-बूँद वक़्त को
तेरी खा़हिश के लिए जमा करता रहा
आज ऐसा लगता है कि
मैं दरम्याँ कोई दीवार चुन रहा था

मुझे तेरी जुस्तजू अब भी है
पर शायद तू आज भी खु़दग़रज़ है
वरना क्यों खा़मोश है
पहले की तरह कुछ कहता क्यों नहीं

 


शायिर: विनय प्रजापति ‘नज़र’

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मेरी नज़्म

जब बात करते हुए देखता हूँ

तमन्ना बेताब रहती है
और खा़हिश परेशाँ
उदास आईने-
खु़द-ब-खु़द टूटते रहते हैं
राह चलती रहती है
पाँव थक जाते हैं
उम्र कम होती रहती है
साल बढ़ते रहते हैं

रात जागती है आँखों में
दिन वीरान उजाड़ गुज़रता है
उँगलियों में उँगलियों से
और निगाहों को बदन से
जब बात करते हुए देखता हूँ
तेरी याद खा़मोश रह जाती है
कुछ सुलगता रहता है सीने में

तन्हाई का साया न टलता है
दिल की ख़ला न घटती है
अरमान सूखे हुए पत्तों की तरह
ज़मीन पर पडे़ रहते हैं
आँसुओं में भीगते-भीगते
ज़मीन में जज़्ब हो जाते हैं
दफ़्न हो जाते हैं

दिल के टूटने से
फ़र्क साँस लेने लग जाता है
फ़ज़ा तो नहीं बदलती
लेकिन उसकी छुअन
और एहसास के ज़ख़्म हरे हो जाते हैं
लम्हा-लम्हा मन ग़म में डूबता जाता है
और गीला-गीला जलता रहता है
 


शायिर: विनय प्रजापति ‘नज़र’