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मेरी नज़्म

तन्हाई के साये मुझे घेर कर बैठ जाते हैं

हल्के गुलाबी फूलों पर ओस की बूँदों को
सूरज की किरनें छूती हैं तो…
बदन में तेरी यादों के दर्द अचानक उठने लगते हैं
तेरी तस्वीर बनने लगती है
दिल तो सुकूत पाता है मगर
मन खा़ली-खा़ली और उदास हो जाता है

सबा के परों पर तैरती हुई खु़शबू
मेरे बेजान खा़बों की जान बन जाती है
फिर कौन बुला रहा है मुझे
मैं कहाँ हूँ, कौन देख रहा है मुझको
सब भूल जाता हूँ, कुछ याद नहीं रहता
साँसों में धड़कनों में तेरा नाम घुल जाता है

आँखों को सिवा तेरे चेहरे के कुछ भी नहीं दिखता
हर शै में बस तू ही तू नज़र आने लगती है मुझको
दिल फिर तेरे क़रीब आने के बहाने ढूँढ़ने लगता है
तुझे पाने के खा़ब संजोने लगता है
और बेताब धड़कनों को
खा़मोश ज़ुबाँ की खा़मोशी चुभने लगती है

सहमे हुए-से हर्फ़ फिर टूटने लगते हैं
बिखरने लगते हैं
और ऐसे में जब किसी सदा के हाथ
मुझे छू देते हैं तो
तन्हाई के साये मुझे घेर कर बैठ जाते हैं
 


शायिर: विनय प्रजापति ‘नज़र’

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मेरी नज़्म

तक़रीब कोई बाक़ी नहीं अब…

आँखों में नींद नहीं रहती
वीरान रातें जागता हूँ
दर्द से दर्द को चैन है
दूर-दूर तक ख़ामोशी बिखरी है

साँस लेने की वजह नहीं है
ख़ला बसी है हर धड़कन दिल में
मुतमइन-सा हर पल क़रीब आता है
और आँखों में जलता रहता है

खु़द से जो सवाल करता हूँ
उनके जवाब ही नहीं हैं
इक ख़फ़ा और खा़ली शाम
बाक़ी रह गयी है मेरी ज़िन्दगी में

आँसू खुष्क पड़ गए हैं
आँख रोती है गर तो जलती है
बुझाने का कोई सबब नहीं
बहाने के सौ बहाने हैं

तक़रीब* कोई बाक़ी नहीं अब
लफ़्ज़ ज़ुबाँ से सिल गये हैं
कौन समझे आधी-अधूरी बातें
जो बीते लम्हों में साँस लेती हैं

* reason


शायिर: विनय प्रजापति ‘नज़र’

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मेरी नज़्म

तो शायद साँस पड़ जाये इनमें…

एक पानी में भीगी हुई किताब
जाने किसने?
सूखने के लिए रख दी है धूप में

जैसे जैसे नमी भाप बनती है
पन्ने फड़फड़ाकर खुलने लगते हैं
नीली स्याही से लिखे हर्फ़
भीगने से धुँधले पड़ गये हैं और…

चश्मा लगाकर भी
इन आँखों से पढ़ नहीं मिलते हैं
जाने किसकी ज़िन्दगी के हर्फ़ हैं?
धुँधले, पानी में धुले हुए हर्फ़

वो, वही जिसने लिखे थे
कलम फेर दे अगर
तो शायद साँस पड़ जाये इनमें…


शायिर – विनय प्रजापति ‘नज़र’

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मेरी नज़्म

ज़िन्दगी के हर्फ़ बदल गये हैं

आइने रातभर रोते रहे
तस्वीरें रातभर जागती रहीं
लम्हे उम्रभर सिसकते रहे
ख़ामोशियाँ उम्रभर ख़ाक फाँकती रहीं

यादें धूप में सूख रही हैं
बातें सब मुरझा गयी हैं
आँखों में दरार पड़ रही है
सपने बंजर हो गये हैं

आँसू बर्फ़ बन गये हैं
ख़ाहिशें तिनके चुन रही हैं
आरज़ू के पाँव थक चुके हैं
ख़्याल ज़मीन में दफ़्न हो गये हैं

साँसें सीने में भीग गयी हैं
उदास सावन टपक रहा है
जंगल तन्हाई में सुलगता है
फूल पलकें झुकाये हुए हैं

ख़ुशबू बे-सदा गल रही है
पलाश के फूल हँस रहे हैं
जड़ें मिट्टी सोख रही हैं
पत्ते सूखी बेलों ने डस लिये हैं

उजाले पत्थरों में जज़्ब हो गये हैं
चाँद धुँध हो रहा है
रात रेत हो गयी है
सितारे रेत के दरया में बह रहे हैं

दर्द तेज़ाब हो गया है
और खु़शी मग़रूर रहती है
मैं शब्द उगलता रहता हूँ
ज़िन्दगी के हर्फ़ बदल गये हैं


शायिर: विनय प्रजापति ‘नज़र’

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मेरी नज़्म

मगर बीते हुए दिन मुझे आज भी ढ़ूँढते हैं…

नामालूम वह दिन मैंने
जन्नत में गुज़ारे या जहन्नुम में
मगर बीते हुए दिन
मुझे आज भी ढ़ूँढते हैं

वह ताने जो लोगों ने मुझे दिये
वह कशिश जिसने मुझे खेंचा
वह जिससे यह देखा ना गया
जाने किसका मन साफ़ था इनमें

मगर बीते हुए दिन
मुझे आज भी ढ़ूँढते हैं…

गोया इक चुभन दिल में हो
दमाग़ फिर कहीं भटक जाता है
आसूँ टूटते हैं बुझते हैं बनते हैं
मगर टीस दबती नहीं किसी तह में

नामालूम वह दिन मैंने
जन्नत में गुज़ारे या जहन्नुम में…

इंतज़ार कोई नहीं करता किसी का
बहते रहते हैं सब नदियों की तरह
या बाँधों की तरह मन बाँध दिया जाता है
कभी दौलत में कभी मरासिम में

मगर बीते हुए दिन
मुझे आज भी ढ़ूँढते हैं…


शायिर: विनय प्रजापति ‘नज़र’