चढ़ गयी रे मस्ती चढ़ गयी रे
चढ़ गयी रे तेरे हुस्न की मस्ती
चढ़ गयी रे मस्ती चढ़ गयी रे
तेरे हुस्न की मस्ती चढ़ गयी रे
लग गया काँटा फँस गया बाँका
बन्धु बात तेरी तो बन गयी रे
चढ़ गयी रे मस्ती चढ़ गयी रे
तेरे हुस्न की मस्ती चढ़ गयी रे
तन गयी रे, देख तो तन गयी रे
पंतग उड़ी थी ओह कट गयी रे
चढ़ गयी रे मस्ती चढ़ गयी रे
तेरे हुस्न की मस्ती चढ़ गयी रे
मिली हज़ारों में चाँद-सितारों में
देख के उसे धड़कन बढ़ गयी रे
चढ़ गयी रे मस्ती चढ़ गयी रे
तेरे हुस्न की मस्ती चढ़ गयी रे
शायिर: विनय प्रजापति ‘नज़र’
लेखन वर्ष: १९९८-१९९९
3 replies on “चढ़ गयी रे मस्ती”
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