ढूँढ़ता हूँ रास्तों में हर कहीं
बस तुझे, बस तुझे
एक नज़र दिखाकर छुप गयी हो
तुम मुझे, तुम मुझे
जब पत्ते उड़ते हैं ऊँचाइयों से गिरके
और हवा उन्हें उड़ा ले जाती है
दूर कहीं, दूर कहीं
तब मुझमें जीने की ख़ाहिश आती है
सोचकर तुझे, बस तुझे
ढूँढ़ता हूँ रास्तों में हर कहीं
बस तुझे, बस तुझे
एक नज़र दिखाकर छुप गयी हो
तुम मुझे, तुम मुझे
जब बारिशें होती हैं पुरानी बस्तियों पे
और पुरानी दीवारों पर बेलें चढ़ती हैं
और उनपे गुच्छे गुलाबी
तब मुझमें पाने की ख़ाहिश आती है
बस तुझे, बस तुझे
ढूँढ़ता हूँ रास्तों में हर कहीं
बस तुझे, बस तुझे
एक नज़र दिखाकर छुप गयी हो
तुम मुझे, तुम मुझे
यह ख़ाहिशें छू लीं, अरमाँ को छूने दे
ख़ाबों पे जलता था, आँखों में रहने दे
मेरे जानिब, मेरे जानिब
शायिर: विनय प्रजापति ‘नज़र’
लेखन वर्ष: २००२
One reply on “ढूँढ़ता हूँ रास्तों में हर कहीं”
जब पत्ते उड़ते हैं ऊँचाइयों से गिरके
और हवा उन्हें उड़ा ले जाती है
दूर कहीं, दूर कहीं
तब मुझमें जीने की ख़ाहिश आती है
सोचकर तुझे, बस तुझे
bahut khub nazarji
khwahish ke kuch patton ke saath mera paigam us tak pahunch jaye.