दिले-सहरा में यह कैसा सराब है
ज़ख़्म मवाद है आँख मेरी बेआब है
क्यूँ इश्क़ ख़ौफ़ खा रहा है हिज्र से
नस-नस में मेरी कोई ज़हराब है
सुलगते हैं तेरे ख़्याल शबो-रोज़
गलता हुआ तेज़ाब में हर ख़ाब है
जुज़ बद्र कौन मेरा रक़ीब जहाँ में
मेरी ख़ाहिश को लाज़िम कैसा नक़ाब है
भटकती है नज़र किसकी राह में
उल्फ़त को मेरी क्या-क्या हिसाब है
ज़िन्दगी कब शक़ खाती है मौत से
मौत को भी ज़िन्दगी से क्या हिजाब है
हर्फ़ मेरे और तसलीम नहीं देते
कि ‘नज़र’ को दर्द से क्या इताब है
सराब= मरीचिका, Mirage, बेआब= सूखी, ज़हराब= ज़हरीला पानी, जुज़= केवल
बद्र= पूरा चाँद, रक़ीब= दुश्मन, हिजाब=पर्दा, शर्म, इताब= गुस्सा, Rebuke
शायिर: विनय प्रजापति ‘नज़र’
लेखन वर्ष: २००३
2 replies on “दिले-सहरा में यह कैसा सराब है”
बहुत बढिया! दिल को छूती हुई एक रचना है।बहुत सुन्दर।
क्यूँ इश्क़ ख़ौफ़ खा रहा है हिज्र से
नस-नस में मेरी कोई ज़हराब है
सुलगते हैं तेरे ख़्याल शबो-रोज़
गलता हुआ तेज़ाब में हर ख़ाब है
thanks paramjeet!