दिल पर होने लगा इक अंजाना असर
खोने लगी है हर शाम मेरी नज़र
गौर से कभी उसको देखा नहीं फिर भी
पहचान लूँगा चेहरे हज़ार हों अगर
आते-जाते मिल ही जाती है नज़र
और थम जाती है दिल की अनबन
जो यह बेज़ुबाँ दिल नहीं कहता है
वह कह देती है मिलते ही नज़र
आज तक जान-पहचान हुई नहीं है
फिर भी प्यार छा गया है दिल पर
दिल पर होने लगा इक अंजाना असर
खोने लगी है हर शाम मेरी नज़र
सपनों की महकने लगी हैं सारी गलियाँ
इश्क़ की महकने लगी हैं सारी कलियाँ
शाम के जाम हमने आँखों से पिये
जो उसने प्यार से भरकर हाथों में दिये
अभी अपनी बात आँखों की आँखों में है
इसलिए रहने दो जहाँ को बे-ख़बर
दिल पर होने लगा इक अंजाना असर
खोने लगी है हर शाम मेरी नज़र
शायिर: विनय प्रजापति ‘नज़र’
लेखन वर्ष: १९९८-१९९९