जब तुम्हारा नामो-निशाँ
इक कोहरे के धुँधलके में था
बेक़रारी कुछ कमनुमा थी
किसी गहरे आज़ार पर ही
चीखती थी चिल्लाती थी
मगर जब से तुम्हारी तस्वीर को छुआ है
यह बेक़रारी खा़मोश बैठती ही नहीं,
सीने को सीमाब किये जाती है…
मसाइलों के बवण्डर उठाती है…
हर पल हर लम्हा ज़हन में…
जिससे भी पूछता हूँ तेरा पता
जब वो नहीं देता
यूँ समझ लीजिए कि
जी में आता है खु़द को क़त्ल कर लूँ
या उसे क़त्ल कर दूँ
पर जब ज़हन के गर्म ख़्यालात
आँसुओं की नमी से तर होते हैं
भीगते हैं…,
तुम्हारे ख़्याल’ तुम्हारी चाह
मेरे हाथ बाँध देती है
और चल पड़ता है
बेइख़्तियारी और दर्द का ग़मगीं सफ़र…
एक बार फिर
शायिर: विनय प्रजापति ‘नज़र’
लेखन वर्ष: २००४