एक तसल्ली मेरे पाँव के नीचे से गुज़रती है
कितनी पी है तूने जो मेरी आवाज़ लरज़ती है
यह भी कोई ग़म है कि तेरा कोई यार नहीं
मेरा तो उसके अफ़साने में कोई किरदार नहीं
तू आज भी परछाइयाँ चुनता है दीवारो-दर
आज भी नब्ज़ की चुभन मुझको अखरती है
एक तसल्ली मेरे पाँव के नीचे से गुज़रती है…
तेरी बाँहों में रेशमी रातों का रेशमी चाँद होगा
मगर कौन दूसरा हमपे मेहरबान होगा
तू आज और कल मेरा मुक़ाबिल नहीं है अगर
फिर क्यों मेरी क़िस्मत मुझको परखती है
एक तसल्ली मेरे पाँव के नीचे से गुज़रती है
कितनी पी है तूने जो मेरी आवाज़ लरज़ती है
शायिर: विनय प्रजापति ‘नज़र’
लेखन वर्ष: २७ मई २००३
2 replies on “एक तसल्ली”
bahut khoobsoorat! Bahut hi khoobsoorat!
तेरी बाँहों में रेशमी रातों का रेशमी चाँद होगा
मगर कौन दूसरा हमपे मेहरबान होगा
तू आज और कल मेरा मुक़ाबिल नहीं है अगर
फिर क्यों मेरी क़िस्मत मुझको परखती है
शुक्रिया, मधु जी!