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मेरी ग़ज़ल

हम भी पागल थे ग़ैरों को अपना जानते थे

हम भी पागल थे ग़ैरों को अपना जानते थे
रुसवा किये जायेंगे इस क़दर यह न जानते थे

बेवफ़ा गर वह होता दर्द शायद कम होता
उसकी वफ़ा का भेद यूँ खुलेगा यह न जानते थे

एक-एक साँस से दबके हूक पत्थर हो गयी
संगे-शरर से जल जायेंगे यह न जानते थे

हमें ज़ब्रो-ज़ोर से किसने ठगा सरे-राह
दोस्ती करके ठगे जायेंगे यह न जानते थे

देख तो ‘वफ़ा’ अपने ख़ाली वीरान दिल में
दाग़ वही सुलगता है जिसको अपना जानते थे


शायिर: विनय प्रजापति ‘वफ़ा’
लेखन वर्ष: २००३

By Vinay Prajapati

Vinay Prajapati 'Nazar' is a Hindi-Urdu poet who belongs to city of tahzeeb Lucknow. By profession he is a fashion technocrat and alumni of India's premier fashion institute 'NIFT'.

One reply on “हम भी पागल थे ग़ैरों को अपना जानते थे”

हम भी पागल थे ग़ैरों को अपना जानते थे
रुसवा किये जायेंगे इस क़दर यह न जानते थे
Ashok Duhan Petwer HARYANA MOB-09896470222

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