आसाँ नहीं राहे-मुहब्बत हर किसी को
मिलती नहीं यार की सोहबत हर किसी को
ज़माने में उँगलियाँ हज़ार उठती हैं कमशक़्ल पर
मुक़ीम नहीं करती क़िस्मत हर किसी को
क्या चाहते हैं ज़िन्दगी से क्या हो रहा है
मिलती नहीं शिगुफ़्ता तबीयत हर किसी को
हर रंग से वाक़िफ़ हुए जाते हैं दर-ब-दर
ढूँढ़ती रहती है बदनीयत हर किसी को
फ़रेब की हमें लत पड़ गयी छुटायें कैसे
मिलती नहीं चाहे से जन्नत हर किसी को
हम बहुत कमज़ोर दिल हैं टूट जायेंगे
समेट लेने की क्या ज़रूरत हर किसी को
सोचा है मुनासिब हो तन्हा जीना शायद
मिलती नहीं यूँ भी फ़ुर्सत हर किसी को
ज़लालत में जिए जाते हैं आँखें झुकाकर
मालूम न चले यह असलियत हर किसी को
ज़िन्दगी की वीरानी में गर्द ही गर्द है
मिलती नहीं जीने की इजाज़त हर किसी को
कौन चाहता है भला किसी को बेवज़ह ‘नज़र’
हम यूँ ही कहते रहे दोस्त हर किसी को
शायिर: विनय प्रजापति ‘नज़र’