हज़ारों की भीड़ में हम अकेले रह गये
जिसके साथ की तमन्ना थी मेरे दिल को
वह तो केवल अब मेरे ख़ाबों में रह गये
वह तो केवल अब मेरे ख़ाबों में रह गये
कि अब हम कहाँ कि अब तुम कहाँ
यह दीवारें कैसी बन गयीं दोनों के दर्मियाँ
तेरी इक नज़र पर यह दिल आहें भरता
मगर यह टूटकर बिखरा है जाने कहाँ-कहाँ
इंतिज़ार तब तक रहेगा तब तक है ज़िन्दगी
उम्मीद है अंधेरों में भी मिलेगी हमें रोशनी
आँखों का ग़म पलकों के किनारे टपकता है
ढ़ूँढ़ता है नज़ारा जिसमें सजा हो वह समाँ
राहों की मिट्टी पर क़दमों के निशाँ बाक़ी हैं
उनको ही बैठकर पढ़ता हूँ सुबह-शाम यहाँ
कि अब हम कहाँ कि अब तुम कहाँ
यह दीवारें कैसी बन गयीं दोनों के दर्मियाँ
कल और था, आज और है, बदल गया जहाँ
एक बदला नहीं मैं और मेरा प्यार, हमनवाँ
भूलना इतना आसाँ होता तो भूल चुके होते
तेरे घर के दरवाज़े को देखना हम छोड़ देते
कि अब हम कहाँ कि अब तुम कहाँ
यह दीवारें कैसी बन गयीं दोनों के दर्मियाँ
शायिर: विनय प्रजापति ‘नज़र’
लेखन वर्ष: १९९८-१९९९