जब ख़ुद को ख़ुद से तन्हा पाता हूँ
मैं बस तेरे क़रीब चला आता हूँ
क्यों न कहा तुमसे कभी हाले-दिल
क्यों आज रोता हूँ पछताता हूँ
बरसों से पड़ी हैं विरह में सूखी-सूखी
मैं क्यों आज आँखों को भिगाता हूँ
जब मेरे दर्दों को कोई नहीं सुनता
मैं दर्दों को जलाता हूँ बुझाता हूँ
तुम गये आँखों से रोशनी गयी
बुझी आँखें तेरे ख़ाबों से जलाता हूँ
बहुत दिन हुए चाँद की बात न की
सुबह-शाम तेरे साथ बिताता हूँ
मेरे चमन को बहार ने रुख़ न किया
मैं पतझड़ ओढ़ता हूँ बिछाता हूँ
ऐ ‘नज़र’ तुझे क्या हुआ? क्यों चुप है?
लहू से तर दामन मैं रोज़ सुखाता हूँ
शायिर: विनय प्रजापति ‘नज़र’
लेखन वर्ष: २००४
5 replies on “जब ख़ुद को ख़ुद से तन्हा पाता हूँ”
बहुत बढिया । बधाई
जब ख़ुद को ख़ुद से तन्हा पाता हूँ
मैं बस तेरे क़रीब चला आता हूँ
बहुत दिन हुए चाँद की बात न की
सुबह-शाम तेरे साथ बिताता हूँ
bahut khoob……..
मेरे चमन को बहार ने रुख़ न किया
मैं पतझड़ ओढ़ता हूँ बिछाता हूँ
-क्या बात है!
जब ख़ुद को ख़ुद से तन्हा पाता हूँ
मैं बस तेरे क़रीब चला आता हूँ
” kitna khubsuret andaj hai..”
Regards
आप सबने मुझे क़ाबिले-तारीफ़ समझा इस बात का शुक्रिया!