जी तक तो लेके दूँ कि तू हो कारगर कहीं
ऐ आह! क्या करूँ, नहीं बिकता असर कहीं
होती नहीं है सुब्ह’ न आती है मुझको नींद
जिसको पुकारता हूँ सो कहता है मर कहीं
साक़ी है इक तबस्सुमे-गुल१ फ़ुरसते-बहार२
ज़ालिम, भरे है जाम तो जल्दी से भर कहीं
ख़ूँनाब३ यूँ कभी न मिरी चश्म से थमा
अटका न जब तक आन के लख़्ते-जिगर४ कहीं
सोहबत में तेरी आन के जूँ-शीशए-शराब५
ख़ाली करूँ मैं दिल के तई बैठकर कहीं
क़ता
ऐ दिल, तू कह तो मुझसे कि मैं क्या करूँ निसार
आवें कभू तो हज़रते-‘सौदा’ इधर कहीं
अंगुश्तरी६ के घर की तरह ग़ैरे-संगो-ख़िश्त७
घर में तो ख़ाक भी नहीं आती नज़र कहीं
१. फूल की मुस्कान, २. बसंत का समय, ३. ख़ून का आँसू,
४. जिगर का टुकड़ा, ५. शराब के जाम की तरह, ६. अँगूठी,
७. पत्थर और ईँट के आलावा
2 replies on “जी तक तो लेके दूँ कि तू हो कारगर कहीं”
साक़ी है इक तबस्सुमे-गुल१ फ़ुरसते-बहार२
ज़ालिम, भरे है जाम तो जल्दी से भर कहीं
ख़ूँनाब३ यूँ कभी न मिरी चश्म से थमा
अटका न जब तक आन के लख़्ते-जिगर४ कहीं
subhan allah…..ek se badhkar ek…..aapki kalam ka javab nahi…
अरे! नहीं यह मेरी ग़ज़ल नहीं… यह ‘सौदा’ साहब की ग़ज़ल है जो ‘मीर’ के समकालीन थे और मेरे मुताबिक उनसे बेहतर भी, ‘सौदा’ ने जितने भी शे’र लिखे वह ‘मीर’ को हमेशा भारी पड़े पर उन्हें शायराने-हिन्द कहने वालों ने ‘सौदा’ को कभी बेहतर नहीं माना। सबके सब शाही चमचे जो थे!