काश यह सन्दली शाम महक जाती
सबा* तेरी ख़ुशबू वाले ख़त लाती
तुझसे इक़रार का बहाना जो मिलता
मेरी क़िस्मत शायद सँवर जाती
दीप आरज़ू का जलता है मेरे लहू से
काश तू इश्क़ बनके मुझे बुलाती
दूरियाँ दिल का ज़ख़्म बनने लगीं हैं
होता यह नज़दीकियों में बदल जाती
सबा: ताज़ा हवा, breeze
शायिर: विनय प्रजापति ‘नज़र’
लेखन वर्ष: २००४
8 replies on “काश यह सन्दली शाम महक जाती”
Behatareen prastuti . badhai.
विनय जी बेहद खूबसूरत रचना है ये आप की…बहुत बहुत बधाई..क्या शब्द हैं और क्या एहसास….वाह वा…
नीरज
दीप आरज़ू का जलता है मेरे लहू से
काश तू इश्क़ बनके मुझे बुलाती
बहोत खूब विनय जी .. सुंदर आपको ढेरो साधू वाद …
दीप आरज़ू का जलता है मेरे लहू से
काश तू इश्क़ बनके मुझे बुलाती
दूरियाँ दिल का ज़ख़्म बनने लगीं हैं
होता यह नज़दीकियों में बदल जाती
ek taaja hawa ka jhonka
आप सभी की स्वागत है, धन्यवाद!
बहुत बेहतरीन, विनय!!!!
समीर लाल जी धन्यवाद!
hi,
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