कहाँ से हो गुज़रती है चाँद की डगर
क्यूँ तारीक़ी में डूबा हुआ है ये शहर
शफ़क़ से उफ़क़ तक बहुत ढूँढ़ा मैंने
उजला चाँद न आया मुझको नज़र
इक बार घर से दोनों साथ निकले थे
राह में टकरा गये जैसे दो हमसफ़र
आतिशे-इश्क़ जलाकर मेरे दिल में
दोबारा दरवाज़े पर न लौटी वो सहर
मुझको चाहत थी इक गुले-लालाज़ार की
जिसपे खिलता न सींच पाये वो शज़र
बहुत उड़ रही हैं इश्क़ की चिंगारियाँ
जंगल की आग जैसे फैल चुकी है ख़बर
दामन छुड़ा रहा है पहला इश्क़ मेरा?
या फिर दूसरे इश्क़ में है कुछ असर
शायिर: विनय प्रजापति ‘नज़र’
लेखन वर्ष: २००२