कौन रोकेगा मुझे
यह आँधियाँ
यह ऊँची दीवारें
कौन रोकेगा मुझे
यह पत्थरों से भरी राहें
कहाँ इनमें साहस इतना
कहाँ इनमें प्राण इतने
कौन रोकेगा मुझे
ठहर जाऊँ मैं यहाँ
नहीं ये किसी के बस में
आँधियों को समाहित कर लूँ
खु़द में ऐसा तूफ़ान हूँ
राहें जो जाती हैं मंज़िलों तक
मैं उनसे भटका सही
मगर अपनी राहें अब मैं खु़द बना लूँगा
ऐसा इंसान हूँ मैं
कौन रोकेगा मुझे
वह नपुंसक हैं सारे
जिन्होंने सोचा सदा मैं मिट जाऊँगा
जिन्होंने चाहा मैं बरबाद हो जाऊँ
क्या चीज़ हूँ मैं
अब मैं अपनी सारी अदा
अब मैं अपने सारे जल्वे
दिखा दूँगा मैं
कौन रोकेगा मुझे
कश्ती जो आँधियों से टकराकर
डगमगाती रही
अब उसे सागर पार लगा दूँगा मैं
रोक पाना अब मुझे बस में नहीं
तोड़ पाना अब मुझे बस में नहीं
अब तो बस मंज़िल को पाऊँगा मैं
कुछ कर दिखाऊँगा मैं
कौन रोकेगा मुझे
यह आँधियाँ
यह ऊँची दीवारें
यह खोखली कमज़ोर चट्टानें
अब से वो वक़्त पूरा हुआ
जब तुम्हारी मनमानी चला करती थी
अब मैं तुम्हें दिखाऊँगा
कि सितारों की मर्ज़ी क्या है
हाँ मेरी मर्ज़ी क्या है
कौन रोकेगा मुझे
अब यह सितारे चलेंगे सारे
जैसे जहाँ मैं चलता हूँ
अब मैं छीन लूँगा
तुमसे सहारे वो वक़्त प्यारे
अब कि जो मौसम आयेगा
वो रंग वैसे ही दिखायेगा
जैसे मैं चाहूँगा जैसे मैं भरूँगा
कौन रोकेगा मुझे
अब बस में तुम्हारे कुछ न रहा
आज मैं तुम्हें तोड़कर दिखाऊँगा
तुम्हारी निगाहों के सामने
अपनी मंज़िलों की राहें बनाऊँगा
अब मैं दिखाऊँगा
वो सारे नज़ारे जो तुम्हें देखने होंगे
फिर मैं कहूँगा –
देख मैंने अपनी मंज़िल पायी
कौन रोकेगा मुझे
तुमसा नपुंसक
नहीं रोक सकते तुम मुझे
अपनी सारी ताक़तें
चाहों तो फिर बटोर लो
अब मैं फिर वही तूफ़ान लाऊँगा
मैं उसी सागर की लहरों में
तुम्हें दफ़न कर जाऊँगा
कौन रोकेगा मुझे
अब मैं फिर वही तूफ़ान लाऊँगा
मैं आग तुम्हारे किलों में लगाऊँगा
मैं शाख़ें तुम्हारीं सब काट जाऊँगा
मैं तुमको इतना बेबस कर जाऊँगा
कि तुम टेक दोगे अपने घुटने मेरे सामने
अब वक़्त को अपने मुताबिक़ चलाऊँगा मैं
कौन रोकेगा मुझे…
शायिर: विनय प्रजापति ‘नज़र’
लेखन वर्ष: २०००