ख़ाब सब ख़ाब हैं आँखों में बिखरे हुए
दिल के कोने-कोने तक छितरे हुए
वह अब कहाँ बाक़ी जो था मुझमें
मैं अब कहाँ ढूँढू जो था तुझमें
ख़ाब सब ख़ाब हैं आँखों में बिखरे हुए
भीगी-भीगी थी ज़मीं सूखे पाँव थे
जलते-बुझते पुराने घाव थे
ख़ाब सब ख़ाब हैं आँखों में बिखरे हुए
जुगनू दो आँखों में तिरने लगे हैं
चिन्गारियों से चुभने लगे हैं
ख़ाब सब ख़ाब हैं आँखों में बिखरे हुए
बुझते हुए दिए को जलाऊँ कैसे
दबी हसरतों को बुझाऊँ कैसे
ख़ाब सब ख़ाब हैं आँखों में बिखरे हुए
शायिर: विनय प्रजापति ‘नज़र’
लेखन वर्ष: २००४
13 replies on “ख़ाब सब ख़ाब हैं आँखों में बिखरे हुए”
खाब सब खाब है आंखों में बिखरे हुए है…. बहोत खूब साहब ढेरो बधाई कुबूल करें …
अर्श
Hello vinay ji
bahut dard hai ismey vinay ji. bahut khub likha hai dil ko chu gaya
बढ़िया लिखा है…
नीरज
behatareen nazm hai badhaee ho
बुझते हुए दिए को जलाऊँ कैसे
दबी हसरतों को बुझाऊँ कैसे
ख़ाब सब ख़ाब हैं आँखों में बिखरे हुए
बहुत सुन्दर
बहुत सुन्दर !
बढ़िया भाव!
बहुत ही सुंदर, ओर भावुक.
धन्यवाद
आप सभी के प्यार और मान का बहुत-बहुत धन्यवाद!
bahut hi sunder….
शुक्रिया मुस्कान जी!
आपकी यह नज़्म बहुत पसंद आई, ख़ास करः
भीगी-भीगी थी ज़मीं सूखे पाँव थे
जलते-बुझते पुराने घाव थे
ख़ाब सब ख़ाब हैं आँखों में बिखरे हुए
चरणस्पर्श महावीर जी, अपना आशीर्वाद बनाये रखें! धन्यवाद!