कितना ढूँढ़ा मैंने ख़ुद को
लेकिन कहीं नहीं पाया
जब भी पाया अकेला पाया
आइनों से इसको चुराया
अपने किरदार को न पहचाना
मैं रहा ख़ुद-से ही अंजाना
सावन बरसा गुल भी आये
पेड़ों की शाख़ों पे पत्ते हरियाये
साँझ ढली रात आयी
बह गया सूरज का गहना
ठण्डे-ठण्डे मौसम की
बंद पलकों में रहना
झील में देखा चाँद ने ख़ुद को
मैं ही जानूँ वह कितना इतराया
अरमान कहें या उम्मीद कहें
इतना सहा और कितना सहें
रात है बैरी सौतन मेरी
चाँद की बाँहों में लिपटी रहे
कितनी रातें गुज़री हैं
और कितने मंज़र वीरान पड़े हैं
समझने वाले समझ गये
बाक़ी सब हैरान खड़े हैं
महक सदी से छलक रही है
मैं ही उसको ढूँढ़ न पाया
शायिर: विनय प्रजापति ‘नज़र’
लेखन वर्ष: २००१-२००२