कोई तुमसे मुलाक़ात का बहाना ढूँढ़ता है
फिर से वही गुज़रा हुआ ज़माना ढूँढ़ता है
वह एक पल जो थम के रह गया है कहीं
उस पल में बीता हुआ अफ़साना ढूँढ़ता है
जिसमें शराब गुलाबी मिला करती थी वहाँ
आज अपने माज़ी का वह पैमाना ढूँढ़ता है
जिसको सुनकर के तुम वापिस लौट आओ
अपनी सदाओं का वह नज़राना ढूँढ़ता है
शायिर: विनय प्रजापति ‘नज़र’
लेखन वर्ष: २००३
5 replies on “कोई तुमसे मुलाक़ात का बहाना ढूँढ़ता है”
वह एक पल जो थम के रह गया है कहीं
उस पल में बीता हुआ अफ़साना ढूँढ़ता है
बहुत बढ़िया है विनय साहब. अच्छा शेर. अच्छी ग़ज़ल.
@ MEEt, thanks buddy!
Vinay ji
Aap itna achchha likhte hain ki mere pass sabd nahi hain ki kaise aap ki saraahna karoon………………………..
@ sad-shukr, Arun…!
भाई ऐसी कविताएँ कहाँ सें लात होः ? दिल कोः छुकर निकल जाती हैं