कुछ फूल बुने थे मैंने बारिश में सूखी शाख़ों पर
ताज़े-से दिखते तो हैं पर महक नहीं है अब उनमें
रिश्ते-से लगते तो हैं पर शिकन झलकती है अब उनमें
कुछ ख़ाब बुने थे मैंने पलकों से सूनी आँखों पर
रोज़ रात खिलते तो हैं पर एतबार नहीं है अब उनमें
दोस्त-सा लगता तो है पर दोस्ताना नहीं है अब उसमें
कुछ पाँख सिएँ थे मैंने अपने इन दो हाथों पर
पाँख-से दिखते तो हैं पर उड़ता नहीं हूँ अब इनसे
रोज़ वह कहते तो हैं पर जुड़ता नहीं हूँ अब उनसे
कुछ ज़ख़्म सिएँ थे मैंने अपने इन सब ख़ाबों पर
ज़ख़्म-से दिखते तो हैं पर घाव नहीं है अब इनमें
दर्द-सा उठता तो है पर दर्द नहीं है अब इसमें
वजह क्या कहूँ…
सूख गये हैं फूल वह सारे’ टूट गयी है वह शाख़
टूट गये हैं रिश्ते वह सारे’ छूट गया है वह हाथ…
शायिर: विनय प्रजापति ‘नज़र’
लेखन वर्ष: २००१-२००२