क्यों? बेशर्म क़तरा-क़तरा ज़हन नहीं ढलता
क्यों? मुझे बेक़रारियों से क़रार नहीं मिलता
क्यों? ढल रहा हूँ दिल में ख़ुद के ही, आज!
क्यों नहीं हूँ कोशिशे-इश्क़ में, ख़ुद के ही आज?
मग़रूर तो हूँ मैं, मजबूर भी हूँ, ऐसा क्यों?
आज तक बेकसूर भी हूँ मैं, न जाने ऐसा क्यों?
पनाह दे दे, पाँव में किसी के जगह दे दे, मुझे
भटकता हुआ ख़ुद ही बीन रहा हूँ अपने टुकड़े!
शायिर: विनय प्रजापति ‘नज़र’
लेखन वर्ष: २००४
3 replies on “क्यों बेशर्म क़तरा-क़तरा ज़हन नहीं ढलता”
ek baar phir ek khoobsurart……nazm……shukriya
@ shukrguzaar to mujhe hona chahiye aap ke pyaar aur sammaan dene ka! 😀
behad khubsuart