लख़्ते-जिगर आँखों से लहू-लुहान निकलते हैं
कुछ इस तरह इश्क़ के अरमान निकलते है
दफ़्न हुए हैं जहाँ तेरी नीम-नज़र के मारे हुए
उस जगह नीम के बियाबान निकलते हैं
हसीनों की ख़ाहिश क्या है अरमान क्या हैं
ले आशिक़ के क़त्ल का फ़रमान निकलते हैं
किस तरह दिल आसूदा हो तेरी दीद से
दिन-रात मेरे दिल से नये ग़ुमान निकलते हैं
हैं तेरे सितम से दिल को ज़ख़्म हज़ार
मगर हम होंठों पर लेके मुस्कान निकलते हैं
मेरी आँखों में है कुछ धुँआ-सा और तस्वीर उसकी
मेरे आँसू भी मानिन्दे-मरजान निकलते हैं
शायिर: विनय प्रजापति ‘नज़र’
लेखन वर्ष: २००४