माहे-कामिल कहूँ कि शाहे-ख़ुदा कहूँ
हुस्न-बानो कहूँ कि रंगे-फ़िज़ा कहूँ
आपको कहूँ तो आख़िर मैं क्या कहूँ
आपका हुस्न तो बेमिसाल है
रूप, रंग, अदा का विसाल है
उन्तिस चाँद में भी दाग़ है
आपका बदन रेशमी आग है
इस रेशमी आग को कहूँ तो क्या कहूँ
हुस्न-बानो कहूँ कि रंगे-फ़िज़ा कहूँ
हुस्न आपका सबसे आला है
रब ने किस साँचे में ढाला है
चाँदनी में खिला हुआ कँवल हो
मुझको अल्लाह का फ़ज़ल हो
अल्लाह के फ़ज़ल को नाम क्या दूँ
माहे-कामिल कहूँ कि शाहे-ख़ुदा कहूँ
शायिर: विनय प्रजापति ‘नज़र’
लेखन वर्ष: ३१ मई २००३
2 replies on “माहे-कामिल कहूँ कि शाहे-ख़ुदा कहूँ”
इस रेशमी आग को कहूँ तो क्या कहूँ
हुस्न-बानो कहूँ कि रंगे-फ़िज़ा कहूँ
wah betarin ,aafarin
thanks mehek!