मैं दिन-रात कई नींदें सो चुका हूँ
इस बार जागूँगा तो क़हर बरपेगा
कौन बचेगा इस जहाँ में जब
ज़हरीले बादलों से अम्ल बरसेगा
जिस्म में बहने लगूँगा ज़हर बनके
जिस्म का क़तरा-क़तरा गलने लगेगा
बैठ जाऊँगा तेरे ज़हन में डर बनके
सच-झूठ कुछ न हलक़ से उतेरगा
मैं दिन-रात कई नींदें सो चुका हूँ
इस बार जागूँगा तो क़हर बरपेगा
ख़ला-ख़ला सिर्फ़ देखोगे तुम मुझे
कि नक़ाबों के नक़ाब उतारते रहना
मेरी तस्वीरें आँखों में तुम टाँग के
मेरा ख़ौफ़ ज़ख़्मों पर मलते रहना
मैं दिन-रात कई नींदें सो चुका हूँ
इस बार जागूँगा तो क़हर बरपेगा
शायिर: विनय प्रजापति ‘नज़र’
लेखन वर्ष: २००२