मैं हूँ, चाँद है, तुम भी होगी कहीं
मैं देखता हूँ जो चाँद को…
तुम भी इसे देखती होगी कहीं
माहे-कामिल ने देखा है मुझे
तेरे पाँव के निशाँ पे सजदा करते हुए
सहर उस वक़्त दरक रही थी
सूरज आ रहा था कमसिन किरनें लिए
यह हवा यह घटाएँ
सभी से मैंने कहा था, कहना
मुझे प्यार है तुमसे
जाने तुमने मेरी सदा को
महसूस किया होगा कि नहीं
मैं तन्हा ही तन्हाइयों को दोहराता हूँ
दिल की सदाओं से तुमको बुलाता हूँ
तुम चले आओ सुनकर मेरी सदा
मैं रोज़ ही गीली पलकें सुखाता हूँ
मेरी आँखों ने देखे हैं
कई टूटते हुए सितारे
जिनको तुमने भी देखा होगा
जाने उन्होंने तुमको मेरी
क़िस्मत में लिखा होगा कि नहीं
माहे-कामिल= full moon, पूर्णिमा का चाँद
शायिर: विनय प्रजापति ‘नज़र’
लेखन वर्ष: १८ मई २००३