मैं रोज़ नयी तकलीफ़ें बुनता हूँ
ज़िन्दगी के इस पुराने करघे पर
कि मैंने कभी सूत भी काता है
रिश्तों के इस टूटे हुए चरख़े पर
आँखें वीरान हैं दूर तक रेत ही रेत है
पानी का कहीं नामो-निशाँ नहीं है
सूरज भी उसकी मुस्कुराहट का ना आया, वो कहाँ है?
मेरी हर रात सूखकर बंजर हो गयी है
मोहब्बत मेरी अफ़साना बन गयी है
मैं रह गया हूँ इक किरदार बनकर…
बेजान यह जिस्म उघड़ने लगा है
रूह पर से सर्प की खाल की तरह
और यह मेरी रूह भी जल रही है
धधकती ख़ुशरंग आग की तरह
वह मुझे मिला था पिछली शामों को, हसीं चाँद जैसे!
उसने भी गुनाह किया है चुप रहकर
शायिर: विनय प्रजापति ‘नज़र’
लेखन वर्ष: २००३
9 replies on “मैं रोज़ नयी तकलीफ़ें बुनता हूँ”
मोहब्बत मेरी अफ़साना बन गयी है
मैं रह गया हूँ इक किरदार बनकर…
बेजान यह जिस्म उघड़ने लगा है
रूह पर से सर्प की खाल की तरह
और यह मेरी रूह भी जल रही है
धधकती ख़ुशरंग आग की तरह
” dard mey semtee, ruh ke tapeesh pe ashkon see likhee,smvadensheel kaveeta’ liked it..
regards
बहुत बढ़िया.
bahut sundar panktiyan hain,aabhaar .
मोहब्बत मेरी अफ़साना बन गयी है
मैं रह गया हूँ इक किरदार बनकर…wah bahut hi badhiya
क्या बात है भईया, बहुत इश्क मोहब्बत, क्या बात है । कहीं दिल तो नहीं लग गया है । न लगा हो तो अच्छा है और लग गया हो तो और भी अच्छा है । अच्छे लेखन के लिए बधाई।
आप सभी सुन्दर टिप्पणियों का स्वागत है और आगे भी रहेगा।
कि मैंने कभी सूत भी काता है
रिश्तों के इस टूटे हुए चरख़े पर
bahut pasand aayi ye line ……..
वह मुझे मिला था पिछली शामों को, हसीं चाँद जैसे!
उसने भी गुनाह किया है चुप रहकर
aor ye bhi.
risto ke charkho se bana libash kuch alag hota hai
uski chamak itni hoti hai ki har rista karib hota hai
chand sitaro ki chamak bhi fiki padh jati hai
jab koi apna pass ake dur hota hai
samjhe mere gam_e _dost
शुक्रिया अनुराग जी, और अश्विन तुम्हारा अंदाज़ कभी ठहाके लगाता है और कभी संजीदा हो जाता है, कहना क्या चाहते हो, कुछ स्पष्ट नहीं हो रहा है।