मेरा यह दिल अजनबी हुआ जाता है
कभी आसमाँ था ज़मीं हुआ जाता है
ख़िज़ाँ में शाख़ पर खिला है कोई गुल
हाले-दिल बड़ा बे-तस्कीं हुआ जाता है
इधर भी दबे पाँव आती है बहार
फिर क्यूँ दिल ग़मगीं हुआ जाता है
रोज़ रात छत पे नहीं आते महजबीं
चाँद के गुरूर पर यक़ीं हुआ जाता है
बर्गे-बहारे-बाग़-सा दिल मेरा
जाने किसका हमनशीं हुआ जाता है
चराग़े-चाँद आसमाँ पर रोशन हुआ
दर्दे-दिल बद्-ज़ुबाँ हुआ जाता है
हैं बड़े तंग तेरे ज़हनी जज़्बात
अब और बदनाम नहीं हुआ जाता है
संगदिली तेरी मुझको ख़ूब रास आयी
तुझसे जानिबाना नहीं हुआ जाता है
शायिर: विनय प्रजापति ‘नज़र’
लेखन वर्ष: २००२