न चाह कर भी तुमसे चाह कर बैठा
यह क्या गुनाह अल्लाह कर बैठा
न पूछगाछ की तेरे बारे में किसी से
तेरे दिल को अपनी राह कर बैठा
मूँद लेता था आँखें हसीनों को देखकर
क्यों चार तुमसे निगाह कर बैठा
दिल की दीवारों पर जो तेरा नाम लिखा
दिल कहता है हाय! गुनाह कर बैठा
यह कैसी पहेली है बूझो तो ‘विनय’
‘नज़र’ तो बूझ के वल्लाह! कर बैठा
शायिर: विनय प्रजापति ‘नज़र’
लेखन वर्ष: २००३