नहीं आसाँ तो मुश्किल ही सही
वह जो है माहे-कामिल है वही
मुझको तो इख़लास है उसी से
ख़ुदा मुझसे संगदिल ही सही
अजनबी है जी मेरा मुझसे ही
वह दर्द से ग़ाफ़िल ही सही
चश्मे-तर से न बुझी आतिश
यह दाग़े-तहे-दिल ही सही
मरहम न करो घाव पर मेरे
चाहत मेरी नाक़ाबिल ही सही
अंजाम की परवाह है किसको
सीने में शीशाए-दिल ही सही
उफ़ तक न की जाये तेरे ग़म में
नालए-सोज़े-दिल है यही
बोले है तेरा इश्क़ सर चढ़के
ख़ुद में मुकम्मिल है यही
चाँदनी रिदा है रोशनाई आज
शाम को सुबह के साहिल ही सही
अफ़सोस किस बात का नज़र
तमाम उम्र का हासिल है यही
शायिर: विनय प्रजापति ‘नज़र’
लेखन वर्ष: २००३