मेरे क़दम क्यों तेरी जानिब बढ़ते जाते हैं
जैसे क़दम-क़दम हर्फ़े-अल्लाह पढ़ते जाते हैं
क्या कम है ऐसा जो नहीं है मेरी ज़िन्दगी में
किसलिए तेरे ग़म हर सिम्त से बढ़ते आते हैं
मुझे फ़रेब देती है खु़दाई बार-बार मगर
हम हैं कि अपनी क़िस्मत से लड़ते जाते हैं
हमने जिन रिश्तों को सँभाला उम्रभर
उन परछाइयों से मरासिम बिगड़ते जाते हैं
दिल का सँभलना अब लगता है मुश्किल ‘नज़र’
पाँव अब रुकते नहीं और छाले पड़ते जाते हैं
शायिर: विनय प्रजापति ‘नज़र’