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मेरी नज़्म

शायद कोई तस्वीर ही…

एक उदास आरज़ू
रेत के मैदान में
दौड़ते-दौड़ते थक गयी
उसे कोई हमदर्द
कोई साया नहीं मिला
मेरा दिल भी एक रेगिस्तान है

एक आरज़ू जो उदास है
कबसे भटक रही है
कोई निशाँ कोई नाम पाने के लिए

मगर रेगिस्तान की आँधियों के बीच
क्या भला कोई कभी कुछ ढ़ूँढ़ पाया है
जो इस उदास आरज़ू को मिलेगा

नासमझ है, समझती ही नहीं
न जाने किसलिए गर्द के ग़ुबार में
इक भँवर के साथ भटक रही है

शायद कोई नाम मिले
शायद कोई निशाँ मिले
शायद कोई तस्वीर ही…
जिससे यह जुस्त-जू ख़त्म हो


शायिर: विनय प्रजापति ‘नज़र’

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मेरी नज़्म

ख़ाब…

सूरज सारा दिन महकता रहा
चाँद शबभर सुलगता रहा

सितारों की कलियाँ जगमगाती रहीं
दिन डूबा तो रात बिखरने लगी

अपने अरमानों के आगोश में बैठा
मैं ख़ाबीदा तुझे देख रहा हूँ…


शायिर: विनय प्रजापति ‘नज़र’

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मेरी नज़्म

ज़मीन में बची थी महज़ तपिश

न सुबह आयी न शाम आयी
मैं दोपहर की तेज़ धूप में भटकता रहा
सहराँ की रेत-सी यह ज़िन्दगी तपती रही
हर ख़्याल हर ख़ाब में तेरा ही अक्स था

सूरज़ ग़ुरूर था बहुत
छाँव का कोई शज़र दूर तक दिखा ही नहीं
बंजर सूखी ज़मीन पर
पानी के सब निशाँ सूख चुके थे

ज़मीन में बची थी महज़ तपिश
ज़िन्दगी के साथ-साथ जिस्म भी तपता रहा
न सुबह आयी न शाम आयी
मैं दोपहर की तेज़ धूप में भटकता रहा


शायिर: विनय प्रजापति ‘नज़र’

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मेरी नज़्म

पत्र

जबसे मैंने तुमको देखा है
यक़ीन जानो सारी रात नींद नहीं आती मुझे
जब साँस लेता हूँ मैं
तुम्हारे बदन की ख़ुश्बू से जिस्म महक उठता है
मुँदी हुई पलकों में आठों पहर
मैं तुम्हें ही देखता हूँ
तुम्हारे संदली बदन की मासूम अदाएँ
मुझे दीवाना कर चुकी हैं
तुम्हारी आँखों की चंचलता, शरारत…
मुझे बेक़रार और बेताब करती है
तुम्हारे रेशमी बालों के स्पर्श को
मेरे रुख़सार बहुत आतुर हैं
मैं तुम्हारे होंटों की नर्मी को
अपने होंटों पर महसूस करना चाहता हूँ
पूरे चाँद के जैसी हो तुम
मैं रात-दिन जिसके ख़ाब देखता हूँ
मानी यह कि
पहली नज़र में ही मुझे तुमसे प्यार हो गया है


शायिर: विनय प्रजापति ‘नज़र’

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मेरी नज़्म

या यह फ़रेब है…

तुम चाहती हो मुझे
या यह फ़रेब है
दिल की धड़कन
तुझे महसूस करती है

आँख तुझे देखती है
एक टुक अपलक
तेरे चेहरे की उमंग
मेरे दिल की तरंग है

जब भी तुम्हें उसके साथ देखता हूँ
जी जल जाता है
आँख रो उठती है
और मन भीग जाता है

तुम्हें अकेले देखता हूँ
तो लगता है
तुम्हारे इशारे बुलाते हैं
तुम मेरा ही इंतज़ार करती हो

तुम चाहती हो मुझे
या यह फ़रेब है…


शायिर: विनय प्रजापति ‘नज़र’