Categories
मेरी नज़्म

आरज़ू तुम पे मर मिटने की

आरज़ू तुम पे मर मिटने की
आज तक दिल में ज़िन्दा है
मगर तुम हो कि तुम्हें
मेरे प्यार की क़दर ही नहीं

एक दिया जल रहा है शबो-रोज़
बे-तरह और बेहविस …
दर्द भरे हुए, ज़ख़्म फूँकते हुए
तुम्हें उसकी गर्मी का एहसास ही नहीं

तेरी तलाश में भटक रहा हूँ
खुष्क… सूखी तेज़ हवाओं में
मुझे आँखें बंद करनी ही पड़ती हैं
दर्द की धूल आँखों से बहती ही नहीं

आरज़ू तुम पे मर मिटने की
आज तक दिल में ज़िन्दा है…


शायिर: विनय प्रजापति ‘नज़र’

Categories
मेरी नज़्म

मेरी ज़िन्दगी में भीड़ बहुत थी

मेरी ज़िन्दगी में लोग बहुत थे
भीड़ बहुत थी
दूर तलक चादर थी धूप की
न शज़र न दरख़्त
दूर तक कोई साया न था

जिसकी ख़्वाहिश थी मुझे
एक वही न था
मेरी ज़िन्दगी में लोग बहुत थे…

साँस जैसे हलक़ से नीचे उतरती न थी
दिल जैसे धड़कता न था
सूखी हुई आँखों में रेत का दरया था

तस्वीरें बनाता था मैं
आँधियाँ जिनको मिटाती थी
था जिनसे मैं वाबस्ता
मगर वो मुझसे न थीं

मेरी ज़िन्दगी में भीड़ बहुत थी
लोग बहुत थे…


शायिर: विनय प्रजापति ‘नज़र’

Categories
मेरी नज़्म

सहाबों का कोई दरिया खा़ली हो रहा है…

क़ायनात बूँद-बूँद रो रही है
सहाबों का कोई दरिया खा़ली हो रहा है
बदल रहा है सब कुछ
इस दिल में ख़ला की उम्र और बढ़ रही है

जब दो लोग दूर जाते हैं
वक़्त उनके दिलों की दूरियाँ बढ़ा देता है
मैंने मुदाम यही देखा है
वरक़-वरक़ मुझसे ज़िन्दगी यही कह रही है

आज और इक नया सफ़हा खुला
आज फिर उसपे रोशनाई उलट गयी
खो गयी एक पुरानी क़ुर्बत
क़दम-क़दम साथ तन्हाई चल रही है

कब तक साँसों में पिरो-पिरोकर
बदन का चिथड़ा-चिथड़ा सँभालूँ
रग-रग में दर्द को पनाह दूँ
कभी तो लगे ज़िन्दगी की शाम हो रही है

मैं उनके लिए जैसा अपना था
वैसा अपना मेरी ज़िन्दगी में कोई नहीं
मुझे ठोकरें ही सहारा देती हैं
खा़हिश कमज़ोर इमारतों-सी ढह रही है

क़ायनात बूँद-बूँद रो रही है
सहाबों का कोई दरिया खा़ली हो रहा है…


शायिर: विनय प्रजापति ‘नज़र’

Categories
मेरी नज़्म

आईना

आईना अंधा होता है
वह देख नहीं सकता
आईना बहरा होता है
वह सुन नहीं सकता

पर आईना कभी बेसदा नहीं टूटता
वह गूँगा नहीं होता!

 


शायिर: विनय प्रजापति ‘नज़र’

Categories
मेरी नज़्म

और कोहरा छँटने लगता है

आँखों में भरा-भरा है
छँटता ही नहीं
किसी बीते हुए पल का कोहरा
कल का कोहरा

धुँधली नज़र आती हुई इमारतों में
किसी खिड़की के उस तरफ़
जो कोई चराग़ जलता दिखायी देता है
तो लगता है कि
तुम मुझे खड़ी देख रही हो

और इसके बाद
शीशे की तरह टूटकर वक़्त
पल-पल बिखरने लगता है
सोज़ की लौ सीने में
यादों का ईंधन सोखने लगती है
और कोहरा छँटने लगता है

फिर गीली भरी हुई आँखों से साफ़ दिखायी देता है
गुज़रा हुआ पल
मानी तेरी तस्वीर वो चंद साँसों के टुकड़े
साफ़-साफ़ लफ्ज़ों में कहूँ तो अधूरा प्यार
तुम्हारा प्यार…
 


शायिर: विनय प्रजापति ‘नज़र’