वक़्त की इक और गिरह खुल गयी
रूह में इक और शिगा़फ़ आ गया
बदन की हर साँस दर्द बन गयी
कि रोशनी को फिर अँधेरा खा गया
वक़्त छोटी-छोटी उम्मीदें
हर वो सपना जो आपकी आँखों ने देखा है
कैसे छीन लेता है
मुझसे बेहतर कोई नहीं जानता
जो रिश्ता मैंने बोया था
उसे अपने हाथों से तुमने खु़द सींचा था
फिर आज किसलिए
ज़ीस्त तेरी उसकी खु़शबू से जुदा है
आँसू आँखों की आँच में
किनारे तक आते-आते धुँआ हो रहे हैं
गीली पुरनम आँखों में
दिल का टुकड़ा-टुकड़ा जल रहा है
मैं बूँद-बूँद वक़्त को
तेरी खा़हिश के लिए जमा करता रहा
आज ऐसा लगता है कि
मैं दरम्याँ कोई दीवार चुन रहा था
मुझे तेरी जुस्तजू अब भी है
पर शायद तू आज भी खु़दग़रज़ है
वरना क्यों खा़मोश है
पहले की तरह कुछ कहता क्यों नहीं
शायिर: विनय प्रजापति ‘नज़र’