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मेरी नज़्म

फिर आज किसलिए…

वक़्त की इक और गिरह खुल गयी
रूह में इक और शिगा़फ़ आ गया
बदन की हर साँस दर्द बन गयी
कि रोशनी को फिर अँधेरा खा गया

वक़्त छोटी-छोटी उम्मीदें
हर वो सपना जो आपकी आँखों ने देखा है
कैसे छीन लेता है
मुझसे बेहतर कोई नहीं जानता

जो रिश्ता मैंने बोया था
उसे अपने हाथों से तुमने खु़द सींचा था
फिर आज किसलिए
ज़ीस्त तेरी उसकी खु़शबू से जुदा है

आँसू आँखों की आँच में
किनारे तक आते-आते धुँआ हो रहे हैं
गीली पुरनम आँखों में
दिल का टुकड़ा-टुकड़ा जल रहा है

मैं बूँद-बूँद वक़्त को
तेरी खा़हिश के लिए जमा करता रहा
आज ऐसा लगता है कि
मैं दरम्याँ कोई दीवार चुन रहा था

मुझे तेरी जुस्तजू अब भी है
पर शायद तू आज भी खु़दग़रज़ है
वरना क्यों खा़मोश है
पहले की तरह कुछ कहता क्यों नहीं

 


शायिर: विनय प्रजापति ‘नज़र’

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मेरी नज़्म

जब बात करते हुए देखता हूँ

तमन्ना बेताब रहती है
और खा़हिश परेशाँ
उदास आईने-
खु़द-ब-खु़द टूटते रहते हैं
राह चलती रहती है
पाँव थक जाते हैं
उम्र कम होती रहती है
साल बढ़ते रहते हैं

रात जागती है आँखों में
दिन वीरान उजाड़ गुज़रता है
उँगलियों में उँगलियों से
और निगाहों को बदन से
जब बात करते हुए देखता हूँ
तेरी याद खा़मोश रह जाती है
कुछ सुलगता रहता है सीने में

तन्हाई का साया न टलता है
दिल की ख़ला न घटती है
अरमान सूखे हुए पत्तों की तरह
ज़मीन पर पडे़ रहते हैं
आँसुओं में भीगते-भीगते
ज़मीन में जज़्ब हो जाते हैं
दफ़्न हो जाते हैं

दिल के टूटने से
फ़र्क साँस लेने लग जाता है
फ़ज़ा तो नहीं बदलती
लेकिन उसकी छुअन
और एहसास के ज़ख़्म हरे हो जाते हैं
लम्हा-लम्हा मन ग़म में डूबता जाता है
और गीला-गीला जलता रहता है
 


शायिर: विनय प्रजापति ‘नज़र’

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मेरी नज़्म

तन्हाई के साये मुझे घेर कर बैठ जाते हैं

हल्के गुलाबी फूलों पर ओस की बूँदों को
सूरज की किरनें छूती हैं तो…
बदन में तेरी यादों के दर्द अचानक उठने लगते हैं
तेरी तस्वीर बनने लगती है
दिल तो सुकूत पाता है मगर
मन खा़ली-खा़ली और उदास हो जाता है

सबा के परों पर तैरती हुई खु़शबू
मेरे बेजान खा़बों की जान बन जाती है
फिर कौन बुला रहा है मुझे
मैं कहाँ हूँ, कौन देख रहा है मुझको
सब भूल जाता हूँ, कुछ याद नहीं रहता
साँसों में धड़कनों में तेरा नाम घुल जाता है

आँखों को सिवा तेरे चेहरे के कुछ भी नहीं दिखता
हर शै में बस तू ही तू नज़र आने लगती है मुझको
दिल फिर तेरे क़रीब आने के बहाने ढूँढ़ने लगता है
तुझे पाने के खा़ब संजोने लगता है
और बेताब धड़कनों को
खा़मोश ज़ुबाँ की खा़मोशी चुभने लगती है

सहमे हुए-से हर्फ़ फिर टूटने लगते हैं
बिखरने लगते हैं
और ऐसे में जब किसी सदा के हाथ
मुझे छू देते हैं तो
तन्हाई के साये मुझे घेर कर बैठ जाते हैं
 


शायिर: विनय प्रजापति ‘नज़र’

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मेरी नज़्म

तक़रीब कोई बाक़ी नहीं अब…

आँखों में नींद नहीं रहती
वीरान रातें जागता हूँ
दर्द से दर्द को चैन है
दूर-दूर तक ख़ामोशी बिखरी है

साँस लेने की वजह नहीं है
ख़ला बसी है हर धड़कन दिल में
मुतमइन-सा हर पल क़रीब आता है
और आँखों में जलता रहता है

खु़द से जो सवाल करता हूँ
उनके जवाब ही नहीं हैं
इक ख़फ़ा और खा़ली शाम
बाक़ी रह गयी है मेरी ज़िन्दगी में

आँसू खुष्क पड़ गए हैं
आँख रोती है गर तो जलती है
बुझाने का कोई सबब नहीं
बहाने के सौ बहाने हैं

तक़रीब* कोई बाक़ी नहीं अब
लफ़्ज़ ज़ुबाँ से सिल गये हैं
कौन समझे आधी-अधूरी बातें
जो बीते लम्हों में साँस लेती हैं

* reason


शायिर: विनय प्रजापति ‘नज़र’

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मेरी नज़्म

तो शायद साँस पड़ जाये इनमें…

एक पानी में भीगी हुई किताब
जाने किसने?
सूखने के लिए रख दी है धूप में

जैसे जैसे नमी भाप बनती है
पन्ने फड़फड़ाकर खुलने लगते हैं
नीली स्याही से लिखे हर्फ़
भीगने से धुँधले पड़ गये हैं और…

चश्मा लगाकर भी
इन आँखों से पढ़ नहीं मिलते हैं
जाने किसकी ज़िन्दगी के हर्फ़ हैं?
धुँधले, पानी में धुले हुए हर्फ़

वो, वही जिसने लिखे थे
कलम फेर दे अगर
तो शायद साँस पड़ जाये इनमें…


शायिर – विनय प्रजापति ‘नज़र’