सहने दे ग़म थोड़ा – थोड़ा
जो तुमने रुख़ मोड़ा-मोड़ा
जान यह जाने दे ज़रा-ज़रा
रहने दे आँखों को भरा-भरा
सपने सारे मेरे टूटे
जो साथी तुम मुझसे रूठे
मरना गर मेरा वफ़ा हो
तो मेरी जान क्यों ख़फ़ा हो
आना तो न जाना तुम कभी
तुमसे हैं मेरी जाँ ख़ाब सभी
साँसें बन जाओ ख़ाली सीने की
प्यास दे जाओ जीने की
दिल मेरा भी इक ख़ला है
तेरे इन्तिज़ार में जला है
ये लम्हे रोक लो तुम
फिर न आयेंगे हुए जो ग़ुम
शायिर: विनय प्रजापति ‘नज़र’
लेखन वर्ष: २००४
8 replies on “सहने दे ग़म थोड़ा-थोड़ा”
बहोत खूब लिखा संगीत मय ,मज़ा आ गया ,ढेरो बधाई आपको
साँसें बन जाओ ख़ाली सीने की
प्यास दे जाओ जीने की
दिल मेरा भी इक ख़ला है
तेरे इन्तिज़ार में जला है
bahut sundar
अच्छी काविश है।
दिल मेरा भी इक ख़ला है
तेरे इन्तिज़ार में जला है
शुक्रिया अर्श, महक और महावीर जी आपका!
भाई बहुत अच्छा लिख रहे हो ,बधाई। थोड़ा काव्य शास्त्र एवं छंद विन्यास आैर पढ़ो
khoobsoorat likha vinay bhai, baat sachmuch saj rahee hai in alfaazon men.
बहुत बडिया नजर जी ,
दिल मेरा भी इक ख़ला है
तेरे इन्तिज़ार में जला है
वाह
मधुप भाई सलाह का शुक्रिया! सभी पाठकों का सहृदय धन्यवाद!