शाम आती है तो धड़कनें
वज़नी होकर टूटने लगती हैं
बिखरने लगती हैं,
सीने की ख़ामोश ख़ला में
और मैं बैठा रहता हूँ
तुम्हारा तसव्वुर किए हुए…
जब कोई परिन्दा उड़ता देखता हूँ
शफ़क़ की ज़ाफ़रानी गहराइयों में
सोचता हूँ, काश मेरे भी पर होते
मैं भी उड़ सकता
तो आज तुम्हारे क़रीब होता
तुम्हें देख सकता, छू सकता…
हक़ीक़त को ख़ाब समझकर भुलाऊँ
तो किस तरह मैं,
उसमें भी तो मुश्किल है
एक नाकामयाब कोशिश है
फिर क्यों न हक़ीक़त से गले मिलूँ
हर मुश्किल आसाँ करते हुए…
दो जिस्मों के दर्मियाँ
मीलों के फ़ासले हो सकते हैं मगर
दो दिलों के बीच एक बालिश्त का
फ़ासला भी नामुमकिन है
कोई तो होता जो फ़ासले मिटा देता…
शायिर: विनय प्रजापति ‘नज़र’
लेखन वर्ष: २००४