एक उदास आरज़ू
रेत के मैदान में
दौड़ते-दौड़ते थक गयी
उसे कोई हमदर्द
कोई साया नहीं मिला
मेरा दिल भी एक रेगिस्तान है
एक आरज़ू जो उदास है
कबसे भटक रही है
कोई निशाँ कोई नाम पाने के लिए
मगर रेगिस्तान की आँधियों के बीच
क्या भला कोई कभी कुछ ढ़ूँढ़ पाया है
जो इस उदास आरज़ू को मिलेगा
नासमझ है, समझती ही नहीं
न जाने किसलिए गर्द के ग़ुबार में
इक भँवर के साथ भटक रही है
शायद कोई नाम मिले
शायद कोई निशाँ मिले
शायद कोई तस्वीर ही…
जिससे यह जुस्त-जू ख़त्म हो
शायिर: विनय प्रजापति ‘नज़र’