सुनो! एक शिकायत है तुमसे
तुम क्यों आती नहीं ख़ाबों में
ख़ुशबू छूता हूँ जब साँसों में
दिखती हो तुम बंद आँखों में
सुनो! एक शिकायत है तुमसे
तुम क्यों आती नहीं ख़ाबों में
यह दुनिया जन्नत हो जाये
जो मिला करो तुम ख़ाबों में
मखमली लब जब हिलते हैं
खिलता है बसंत शाख़ों में
सुनो! एक शिकायत है तुमसे
तुम क्यों आती नहीं ख़ाबों में
तेरे जिस्म की महक जुदा है
चाहे तुम चाँद बनो बादलों में
रंग तेरे मेरी आँखों की चमक
तुम तितली दिल के बाग़ों में
सुनो! एक शिकायत है तुमसे
तुम क्यों आती नहीं ख़ाबों में
शायिर: विनय प्रजापति ‘नज़र’
लेखन वर्ष: २००४
4 replies on “सुनो! एक शिकायत है तुमसे”
बढ़िया है, लिखते रहिये.
शुक्रिया समीर लाल जी, आपका मेरे ब्लॉग पर हार्दिक स्वागत है!
तेरे जिस्म की महक जुदा है
चाहे तुम चाँद बनो बादलों में
रंग तेरे मेरी आँखों की चमक
तुम तितली दिल के बाग़ों में
सुनो! एक शिकायत है तुमसे
तुम क्यों आती नहीं ख़ाबों में
bahut khoob geet hai yar….ab ek nazm ki darkhaasaat hai tumse.
शुक्रिया, अनुराग!:) तुम्हारी ख़ाहिश पूरी की जाती है! 😉