हल्के गुलाबी फूलों पर ओस की बूँदों को
सूरज की किरनें छूती हैं तो…
बदन में तेरी यादों के दर्द अचानक उठने लगते हैं
तेरी तस्वीर बनने लगती है
दिल तो सुकूत पाता है मगर
मन खा़ली-खा़ली और उदास हो जाता है
सबा के परों पर तैरती हुई खु़शबू
मेरे बेजान खा़बों की जान बन जाती है
फिर कौन बुला रहा है मुझे
मैं कहाँ हूँ, कौन देख रहा है मुझको
सब भूल जाता हूँ, कुछ याद नहीं रहता
साँसों में धड़कनों में तेरा नाम घुल जाता है
आँखों को सिवा तेरे चेहरे के कुछ भी नहीं दिखता
हर शै में बस तू ही तू नज़र आने लगती है मुझको
दिल फिर तेरे क़रीब आने के बहाने ढूँढ़ने लगता है
तुझे पाने के खा़ब संजोने लगता है
और बेताब धड़कनों को
खा़मोश ज़ुबाँ की खा़मोशी चुभने लगती है
सहमे हुए-से हर्फ़ फिर टूटने लगते हैं
बिखरने लगते हैं
और ऐसे में जब किसी सदा के हाथ
मुझे छू देते हैं तो
तन्हाई के साये मुझे घेर कर बैठ जाते हैं
शायिर: विनय प्रजापति ‘नज़र’