तन्हाई यूँ ढूँढ़ती है मुझे
जैसे मेरी सदा तुम्हें
जो दीवारें ख़ुद-ब-ख़ुद गिरती हैं
मैं कैसे चुनावाऊँ उन्हें
मैं बद से बदतर हुआ जाता हूँ
याद कर-करके तुम्हें
ख़िज़ाँ भी ख़ुशरंग हुई जाती है
खुष्क पत्ते पहने-पहने
शाम कितनी हसीन हो जाती है
पहने के रात के गहने
ऐसी शाम भी सादी लगती है मुझे
यह दर्द क्या पता तुम्हें
अब तो खुष्क पत्तों पर
ओस की तरह जीता हूँ…
शायिर: विनय प्रजापति ‘नज़र’
लेखन वर्ष: ०८ जून २००३
2 replies on “तन्हाई यूँ ढूँढ़ती है मुझे”
शाम कितनी हसीन हो जाती है
पहने के रात के गहने
beautiful words.
ख़ुशामदीद…