तेरे रेशमी बदन से सरकता है यह दुप्पटा
हज़ारों आहें लहू में डूबकर आग बन जाती हैं
ज़ालिम तेरे तआक़ुब की यह अदा भी ख़ूब है
शायिर: विनय प्रजापति ‘नज़र’
लेखन वर्ष: २००३
तेरे रेशमी बदन से सरकता है यह दुप्पटा
हज़ारों आहें लहू में डूबकर आग बन जाती हैं
ज़ालिम तेरे तआक़ुब की यह अदा भी ख़ूब है
शायिर: विनय प्रजापति ‘नज़र’
लेखन वर्ष: २००३
4 replies on “तेरे रेशमी बदन से”
सादर अभिवादन , रचना अच्छी लगी
परिचय का एक मुक्तक भेज रहा हूँ
मुक्तक …….
हमारी कोशिशें हैं इस, अंधेरे को मिटाने की
हमारी कोशिशें हैं इस, धरा को जगमगाने की
हमारी आँख ने काफी, बड़ा सा ख्वाब देखा है
हमारी कोशिशें हैं इक, नया सूरज उगाने की …
डॉ उदय ‘मणि’ कौशिक
आपका स्वागत है!
बहुत खूब…..क्या ये मैंने पहले भी तुम्हारे ब्लॉग पर पढ़ा है…..
@ Dr. Anurag, no this triveni resembles with taaaqub
http://vinayprajapati.wordpress.com/2008/07/20/taaaqub/