तुम आये क्यों जब तुम्हें जाना ही था
मुझसे दूर जाकर मुझे भुलाना ही था
बदली-बदली फ़िज़ा में कुछ अपना लगा
यह मौसम तो इक रोज़ आना ही था
इसे क्या कहूँ, क्या प्यार का नाम दूँ
तू अगर मिले मुझे तेरा हाथ थाम लूँ
मेरी एक यही ख़ाहिश है यही तमन्ना
इस ख़ाहिश ने मुझको रुलाना ही था
तुम आये क्यों जब तुम्हें जाना ही था
मुझसे दूर जाकर मुझे भुलाना ही था
तेरा नाम लूँ तो सुकूँ आता है कुछ-कुछ
तुम मिलने आओ कभी मुझसे सचमुच
हैं तेरी तस्वीर से अब बे-ताबियाँ मुझे
मुझसे साथ इनको यूँ निभाना ही था
तुम आये क्यों जब तुम्हें जाना ही था
मुझसे दूर जाकर मुझे भुलाना ही था
शायिर: विनय प्रजापति ‘नज़र’
लेखन वर्ष: २००४
6 replies on “तुम आये क्यों जब तुम्हें जाना ही था”
इसे क्या कहूँ, क्या प्यार का नाम दूँ
तू अगर मिले मुझे तेरा हाथ थाम लूँ
मेरी एक यही ख़ाहिश है यही तमन्ना
इस ख़ाहिश ने मुझको रुलाना ही था
बहोत खूब लिखा है आपने विनय जी….
साधुवाद
kuch log aakar jane ke liye hi hote hai,magar khubsurat yaad bankar rehte hai,bahut sundar
मेरी एक यही ख़ाहिश है यही तमन्ना
इस ख़ाहिश ने मुझको रुलाना ही था
तुम आये क्यों जब तुम्हें जाना ही था
मुझसे दूर जाकर मुझे भुलाना ही था
fir ek udaasi…..
शुक्रिया आपकी टिप्पणियों के लिए… अनुराग जी क्या इतना सेंटि होने की क्या बात यह तो पुराने पल हैं जो गुज़र गये आगे सब अच्छा हो ऐसी दुआ कीजिए…
बहुत बढिया, ढेरों बधाईयाँ!
– TYT7TR66455T
गणेश जी, TYT7TR66455T क्या है?