अजब जाला है डोरियों का
एक डोर का छोर
जाने और कितनी डोरियों से जुड़ा है…
डोरियाँ कुछ मानूस
जानी-पहचानी-सी मगर फिर भी अंजान
जाने मुझसे उलझ जायें
या सुलझा दें मुझे
जो भी हो
मुझे तो उनसे इक बार बँधकर खुलना ही है
चाहिए तो बस इतना
कि उस डोर की छोर तक पँहुचू
जिससे गींठ बँधनी है
कोई डोर मुझसे उलझेगी
कटेगी… टूटेगी…
मुझे इसकी क्या फ़िक्र…
हाँ जो मुझे सही डोर तक पँहु्चा दे
उससे जुड़ा रहूँगा किसी न किसी डोर के ज़रिये
मगर देखिए
वक़्त के किस सिरे पर
सही डोर से चाह की गींठ लगे
शायिर: विनय प्रजापति ‘नज़र’
लेखन वर्ष: २००४