सोचा था दिन चढ़ेगा दोपहर तक
तो सूरज की आग
सर्दियों के सर्द बादलों को ग़ुबार कर देगी
बहने लगेगा बदन में जमा हुआ लहू
और झपकने लगेंगी एक टुक अपलक पलकें
लेकिन ऐसा कुछ भी हुआ नहीं
दिन दोपहर तो चढ़ा पर बादल नहीं छटे
कोहरा नहीं पिघला
उल्टे सूरज की आग जम गयी,
ठिठुर गयी…
सर्द हवा ने बुझा दिया दिन का सूरज
उतरने लगा शाम के आगोश में दिन
आज शफ़क़ न गुलाबी न जाफ़रानी थी
बस नीला स्लेटी आकाश
अजीब उदासियों के साथ बैठा रहा
न जाने किसके इन्तिज़ार में…
शायिर: विनय प्रजापति ‘नज़र’
लेखन वर्ष: २००४
One reply on “उल्टे सूरज की आग जम गयी”
दीपावली की हार्दिक शुभ कामनाएं /दीवाली आपको मंगलमय हो /सुख समृद्धि की बृद्धि हो /आपके साहित्य सृजन को देश -विदेश के साहित्यकारों द्वारा सराहा जावे /आप साहित्य सृजन की तपश्चर्या कर सरस्वत्याराधन करते रहें /आपकी रचनाएं जन मानस के अन्तकरण को झंकृत करती रहे और उनके अंतर्मन में स्थान बनाती रहें /आपकी काव्य संरचना बहुजन हिताय ,बहुजन सुखाय हो ,लोक कल्याण व राष्ट्रहित में हो यही प्रार्थना में ईश्वर से करता हूँ “”पढने लायक कुछ लिख जाओ या लिखने लायक कुछ कर जाओ “”