उसका सूरज जलते-जलते राख़ हो गया
मेरा चाँद पिघलते-पिघलते पिघल गया
ना उस दिन उसके दिल से उफ़ आयी
ना आज तक मेरे दिल से आह निकली
मेरे पास उसकी दी हुई हर एक चीज़ है
जो न उसने मुझसे बेतरह माँगी कभी
न उसने कुछ कहा ही ख़त के ज़रिए
और न मैंने ही यह नब्ज़ बाँधी कभी
वह लबों को सीं कर
बैठा रहता है मेरे पास ही
उससे मेरी इक शर्त है
जो न मैंने तोड़ी
और न उसने तोड़ी कभी
वह नयी शाख़ पर पहला फूल था
ज़िन्दगी का एक उम्दा उसूल था
क़ुबूल किया था मैंने उसको
अपना हाथ देकर
पर मैं न उसको कभी क़ुबूल था
ज़िन्दगी के रंग आँखों की नमी ने सोख लिए
मैं फिरता रहा हमेशा ही उसकी याद लिए
मालूम नहीं वह ख़ाब था या कोई रंग था
मेरे जिस्म का मोम जलता रहा फ़रियाद लिए
वह आया था मेरी ज़िन्दगी में
सूरज की पहली किरन जैसे
वह फिरता था दिल के बाग़ीचे में
इक चंचल हिरन जैसे
उसके लबों से उड़ती थी
तितलियाँ हँसी बनकर
अब वह बैठा रहता है
अपने माथे पर शिकन लिए
इक बार फिर वहीं आ गये
जहाँ से चले थे पहले कभी-
उसका सूरज जलते-जलते राख़ हो गया
मेरा चाँद पिघलते-पिघलते पिघल गया
ना उस दिन उसके दिल से उफ़ आयी
ना आज तक मेरे दिल से आह निकली
शायिर: विनय प्रजापति ‘नज़र’
लेखन वर्ष: २००३
4 replies on “उसका सूरज जलते-जलते राख़ हो गया”
मज़ा आ गया| बहुत ख़ूबसूरत||
मीना
How about this.
मैं तुम्हारे संयम को अपने में
धारण कर
निरंतर सुलगती लौ से
जीवनधारा को निष्कलंक करती हुई
इस अविरत जीवन अग्नि में
अनादि तक समर्पित हूँ।
सुबह का सूरज अब मेरा नहीं है।
मीना जी,
आपकी काव्य पंक्तियों पर कोई प्रश्न चिह्न नहीं, सच, बहुत सुन्दर हैं!
ना उस दिन उसके दिल से उफ़ आयी
ना आज तक मेरे दिल से आह निकली
kya khayaal hain janaab
shaandaar
रोहित साहब, हमारे चिट्ठे पर आपका स्वागत है।